क्रिकेट अब खेल नहीं रह गया ना ही उसमें कोई खेल भावना बची होने की सम्भावना नज़र आती है, अब इस खेल का व्यवसायीकरण कर ‘राष्ट्रवाद का दंगल’, ‘बाप बेटे की लड़ाई’, महा मुक़ाबला, आर पार की लड़ाई, धो डालो, रगड़ डालो जैसे नारों और हेडिंग के साथ टीवी डब्बे और मीडिया के जारिए हमारे मन नास्तिष्क में पेवस्त कर दिया गया है, खासकर जब भारत पाकिस्तान के बीच हो तो ये क्रिकेट खेल न होकर बिलकुल ही सांप्रदायिक युद्ध सा नज़र आने लगता है। क्रिकेट में राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता का उभार चिंताजनक स्तर पर है, अब इसे सुनियोजित तरीके से देश में राष्ट्रवाद का ख़ास प्रतीक या पर्याय बना दिया गया है।
अप्रैल, 1986 का वो दिन जब शरजाह में आखिरी गेंद पर जावेद मियांदाद ने छक्का उड़ाया था। उस सदमे ने हमारा जोश ठंडा कर दिया था। न किसी बहाने से तसल्ली मिल रही थी और न किसी सफाई से। कमसिनी के आलम में दिल पर चोट के कारण समझ ने जवाब दे दिया था।
तभी एक दोस्त ने धीरे से वही बात बोली जो घर पर पिता से भी सुनी थी, जुमे (शुक्रवार) के दिन तो हम उन्हें हरा ही नहीं सकते। दिमाग का ट्रैफिक खुल गया। अब हमारे पास बहाना भी था और दलील भी, जिसके जरिए भारत की हार हजम की जा सकती थी। ‘अशुभ शुक्रवार’ का तर्क एकदम ठीक लगा और हम सब सहमत हो गए। अचानक चेतन शर्मा से हमदर्दी होने लगी। वह बेचारा तो यॉर्कर फेंकना चाहता था, पर फुलटॉस उसकी किस्मत में लिखी थी।
जीत के लिए बौखलाए हुए भारतीय से एक परिपक्व क्रिकेट प्रेमी बनने में वक्त जरूर लगा, पर जो हुआ भले के लिए ही हुआ। अब मन शांत है और दिमाग अक्ल के आदेशों पर काम कर रहा है। इन उन्माद भरे विक्षिप्त दिनों में भी संतुलन बना हुआ है। कुछ-कुछ भारत की तरफ झुकी हुई अर्ध-तटस्थ जैसी अपनी स्थिति से मैं खुश हूं।
धीरे धीरे भारत द्वारा पाक को हारने का मतलब निकला-पाकिस्तान के रूप में मुसलिम फंडामेंटलिजम को हरा दिया गया है, अब दूसरे फंडामेंटलिजम को हराना बाकी है। यानी सेकुलरिजम की वकालत के नाम पर क्रिकेट के जरिए पाकिस्तान की टीम पर मुस्लिम कट्टरपंथ की नुमाइंदगी का रूपक चस्पां कर दिया गया। विख्यात अर्थशास्त्री सुरजीत सिंह भल्ला भी उस बुधवार को मोहाली स्टेडियम में ठसाठस भरे हुए चालीस हजार दर्शकों में से एक थे। उन्हें यह देख कर अजीब-सा लगा कि दर्शकगण ‘बंदेमातरम’ गा रहे थे और उनके बीच से बार-बार ‘जय माता दी’ की नारेबाजी उठ रही थी। क्रिकेट के विचारधारात्मक दोहन का यह सिलसिला इसी जगह खत्म नहीं हुआ।
मीडिया के अन्य संस्करण भी पीछे रहने वाले नहीं थे। बिग एफएम नामक फिल्मी गीतों के एक लोकप्रिय चैनल पर बुधवार और शनिवार के बीच में हर पंद्रह मिनट बाद एक आवाज उभरती थी – ‘लंका का राजा रावण। दस सिर वाला रावण। बीस भुजाओं वाला रावण। सीता का हरण करने वाला रावण। राम के हाथों मरने वाला रावण। एक बार फिर मरेगा यह रावण।’ बस इतना कह कर यह आवाज खामोश हो जाती थी। उधर टीवी की स्क्रीन पर एक बड़ा सा पोस्टर लगातार दिखाया जा रहा था जिसमें सचिन और सहवाग धनुषधारी राम-लक्ष्मण के रूप में दिखाए गए थे। धोनी का निरूपण हनुमान के रूप में किया गया था।
हनुमान के पैरों तले जो राक्षस कुचले जा रहे थे उनकी शक्ल पाकिस्तान के कप्तान शाहिद अपफरीदी से साफ तौर पर मिलती थी। एक अहिरावण का हनन राम-लक्ष्मण-हनुमान की टीम के हाथों हो चुका था। पोस्टर बता रहा था कि अभी एक रावण और मौज़ूद है जिसका हनन बाकी है। इसीलिए पृष्ठभूमि में संगाकारा को दस सिर और बीस हाथों के साथ चित्रित किया गया था।
क्रिकेट के नाम पर हिंदू मिथकों, वंदेमातरम रूपी राष्ट्रवाद और मुसलिम कट्टरपंथ की जिम्मेदारी पाकिस्तान पर थोपने की राजनीति के इस भीषण प्रसंग में एक तथ्य जोड़ना और जरूरी है। सेमीफाइनल और फाइनल के टीवी प्रसारण के दौरान दस सेकंड के विज्ञापन की दर, जो सामान्य दिनों में पचास से सत्तर हजार रुपए ‘प्राइम टाइम रेट्स’ होती है, क्रमशः 15-17 लाख और 20-22 लाख रुपए थी।
बाजार की ताकतें खुल कर खेल रही थीं। मुंबई, दिल्ली, बंगलूर और चेन्नई जैसे महानगरों में बीयर बारों और शराबखोरी के अन्य अड्डों ने लाखों गैलन बीयर का स्टॉक जमा कर लिया था। रिबूक, आदिदास और स्पोर्ट्स कंपनियों की दूकानों से भारतीय टीम की जरसियां फटाफट बिक रही थीं। भले ही स्टेडियम में न जा पाए हों, पर भारतीय दर्शक अपने घरों या बियर बारों में टीम की नीली पोशाक पहन कर और चेहरे पर तिरंगी पट्टी बनाए हुए मैच देख रहे थे।
जो योरोप के शहरों में फुटबाल के बड़े मैचों के दौरान होता है, वही समां था। सड़कों पर चूहे और कीड़े भी निकलने के लिए तैयार नहीं थे। दिल्ली में मोहाली वाले मैच के दिन तो सेंटर फार दि स्टडी ऑफ डिवेलपिंग सोसाइटी जैसे रिसर्च संगठन की भी दोपहर बाद छुट्टी कर दी गई थी। रिक्शेवाले से लेकर विद्वान तक, पिफल्म स्टार से लेकर राजनेता तक और सांप्रदायिक से लेकर सेकुलर तक सभी लोग इस क्रिकेटीय प्रसंग में दीवाने हुए जा रहे थे। जो क्रिकेटीय राष्ट्रवाद संदीप द्विवेदी के बचपन में सांप्रदायिक रंगों में रंगा जा रहा था, उसने क्रिकेट के भारतीय प्रेमियों की एक ऐसी विशाल खेप तैयार कर दी थी जिसके मानस की व्याख्या अभी तक पूरी तरह से नहीं हो पाई है।
वह भारतीय क्रिकेटप्रेमी कौन है और कहां से आया जो मोहाली के स्टेडियम में बैठा हुआ उन्नीसवीं सदी में लिखा गया ‘बंदेमातरम’ गा रहा था या जो मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम में दशहरा मनाने गयाथा ? इसकी चरित्रगत संरचनाओं का अध्ययन अभी बहुत कम किया गया है। कुल मिला कर अभी तक इस क्रिकेट प्रेमी की जो हकीकत सामने आई वह उस योरोपीय स्पोर्ट्स फैन और उसके कुखयात फैनडम से कतई भिन्न है जिसका दुनिया भर के समाजशास्त्री और संस्कृति-अध्येता विश्लेषण कर चुके हैं।
यह क्रिकेटप्रेमी न तो फ्रैंकफर्ट स्कूल की क्रिटिकल थियरी में फिट बैठता है और न ही इसकी तुलना हॉलीवुड की फिल्मों में वर्णति सेलिब्रिटी स्पोर्ट्स स्टार की जिंदगी दूभर कर देने वाले फैन से की जा सकती है। हालांकि क्रिकेट एक खेल है, पर इस क्रिकेट प्रेमी को ‘खेल प्रेमी’ की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, क्योंकि वह इस खेल की किसी बारीकी में कोई दिलचस्पी नहीं लेता। अगर एक हजार क्रिकेटप्रेमियों से बात की जाए तो उनमें से केवल दस ही ‘लैग बिफोर विकेट, दूसरा, लैग कटर, गुगली या रिवर्स स्विंग के तकनीकी पहलुओं से लैस मिलेंगे, बावजूद इसके कि टीवी पर स्लो मोशन की कई प्रौद्योगिकियों के सहारे ये आयाम न जाने कितने बार दिखाए जा चुके हैं।
यह क्रिकेटप्रेमी सिर्फ अपनी टीम के साथ ही वफादार नहीं है, बल्कि इसकी दिलचस्पी विपक्षी टीम का उपहास करने और उसका कार्टून खींचने में ज्यादा रहती है। विपक्षी टीमों के खिलाफ नस्लवादी हरकतें करने और टीका-टिप्पणियां करने का रुझान भी साफ है। वेस्टइंडीज के खिलाड़ी अपने काले रंग के कारण और आस्ट्रेलिया के साइमंड्स जैसे खिलाड़ी अपने जनजातीय उद्गम के कारण इसके शिकार बन चुके हैं। योरोप का स्पोट्र्स फैन अपने स्टार या क्लब का साथ हार की सूरत में भी देता है।
भारतीय क्रिकेटप्रेमी के शब्दकोश में हार नामक शब्द है ही नहीं। एक तरह से वह मानता ही नहीं कि मैदान में दो टीमें खेल रही हैं। जब वह मैदान पर या टीवी स्क्रीन पर नजर फेंकता है तो उसे केवल अपनी टीम ही दिखाई देती है। इसलिए उसकी विश्लेषणात्मक बुद्धि को केवल अपने खिलाड़ियों की सपफलता-विफलता ही दिखती है। इसलिए वह हारने पर बेहद नाराज और हिंसक हो उठता है (जिसके शिकार खिलाड़ियों के घर, उनकी तस्वीरें और क्रिकेट के स्मारक बनते हैं) और जीतने पर खुशी से दीवाना (जिसके कारण खिलाड़ियों को लगभग देवता की हैसियत मिल जाती है)।
पाकिस्तान-विरोध और उग्रराष्ट्रवाद की स्थिति यह है कि शायद एक बार केन्या या जिंबाब्वे के मुकाबले भारत की पराजय को क्षमा भी कर दिया जाए, लेकिन पाकिस्तान के मुकाबले पराजय का विकल्प तो बेचारे भारतीय खिलाड़ियों के पास है ही नहीं। समाज-विज्ञान के हलकों में इस बात पर लगभग मतैक्य है कि क्रिकेट प्रेम की यह संरचना राष्ट्रवाद के एक खास संस्करण की देन है। क्रिकेट और राष्ट्रवाद का समागम बहुत पुराना नहीं है।
क्रिकेट में जैसे ही एक दिवसीय प्रतियोगिता चालू हुई, उसकी शिष्ट संरचनाओं में रैडिकल परिवर्तन आ गया। वह नब्बे मिनट के फुटबाल मैच से भी अधिक निर्णयपरक हो गई। विडंबना यह है कि एक दिवसीय प्रतियोगिता का पहला प्रकरण (आस्ट्रेलिया में कैरी पैकर द्वारा आयोजित की गई वर्ल्ड सीरीज क्रिकेट) टेस्ट क्रिकेट को राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व के दायरों से निकाल कर बाजार के दायरों में ले जाने की कोशिश का परिणाम था।
पैकर के डॉलरों के लालच में दुनिया के बड़े-बड़े खिलाड़ियों ने अपने-अपने राष्ट्रीय बोर्डों के खिलाफ बगावत कर दी थी। इस प्रसंग से प्रसारण कंपनियों और क्रिकेटरों को वह संदेश मिला जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। लेकिन जब उन्होंने पाया कि पैकर की टीमों को देखने की बजाय दर्शकगण भारत और आस्ट्रेलिया के बीच दूसरे दर्जे की टेस्ट टीमों का मैच देखना ज्यादा पसंद कर रहे हैं, तो बाजार और राष्ट्रवाद को आपस में जोडने का प्रयोग किया गया जो पहले विश्व कप से ही सुपरहिट साबित हुआ।
1982 में दिल्ली एशियाड के बाद भारत का जैसे ही टीवीकरण हुआ, प्रसारण कंपनियों को लगा कि क्रिकेट से ज्यादा टीवी फ्रेंडली गेम कोई नहीं हो सकता। हर छः गेंदों के बाद विज्ञापन दिखाने की सुविधा किसी और खेल से नहीं मिल सकती थी। 1983 में कपिल देव की टीम ने जैसे ही विश्व कप जीत लिया, भारत की राष्ट्रवादी कल्पनाशीलता पर क्रिकेट छा गया। दिलचस्प बात यह है कि इस प्रतियोगिता में अलग-अलग ग्रुप में होने के कारण भारत और पाकिस्तान के बीच मैच होने की नौबत ही नहीं आई थी।
1985 में आस्ट्रेलिया के मैदानों पर हुई विश्व चैंपियनशिप क्रिकेट में फिर भारत जीता, और इस बार उसने फाइनल में पाकिस्तान को ही हराया। इन दोनों प्रतियोगिताओं के दौरान इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया के मैदानों पर अनिवासी भारतवासियों ने तिरंगा ले कर अपने पितृदेश से आए खिलाड़ियों का आक्रामक समर्थन किया। भारत जैसे ही जीतता, वे मैदान की सीमाएं लांघ कर भीतर घुस आते।
नब्बे के दशक में क्रिकेट की एक दिवसीय प्रतियोगिता बाकायदा युद्ध के मैदान में बदल गई। उधर ओल्ड ट्रैफर्ड के मैदान पर भारत पाकिस्तान से जीत रहा था, और इधर करगिल के मोर्चे पर भारतीय फौजी खुशी से हवाई फायरिंग कर रहे थे। पाकिस्तानी सैनिक उदास थे।
‘एशियन एज’, ‘पायनियर’, ‘इंडियन एक्सप्रैस’, ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ जैसे सभी अखबारों ने लिखाः ‘पाक फाल्स ऐट इंडियाज लाइन ऑव कंट्रोल… इंडिया ट्राइ इन गेम अव डैथ … पार्ट अवे, फील दि वार्म ऑफ ग्लो।’
उस ब्रिटिश मैदान पर हिंदी का एक पत्रकार भी मौजूद था। दैनिक जनसत्ता के सम्पादक प्रभाष जोशी ने जो लिखा उसकी भावना कुछ इस प्रकार की थी कि अगर अब भारत विश्व कप में न भी जीते तो क्या हुआ। उसने पाकिस्तान को तो हरा ही दिया है। प्रभाष जोशी द्वारा ‘जनसत्ता’ में किया गया क्रिकेट-लेखन युद्धप्रिय राष्ट्रवाद की नंगी मिसाल है।
अंग्रेजी पत्रकारिता खेलकूद की रिपोर्टिंग के लिए ट्राउंस, बीट, क्रश, पल्प जैसी हिंसक पदावली का प्रयोग करती रही है पर जब हिंदी ने यही करना शुरू किया तो उसका प्रभाव भीषण साबित हुआ। प्रभाष जोशी ने भारत-पाकिस्तान मैचों के संदर्भ में ‘बदला, खुंदक, लहूलुहान, दचक दिया, रगड़-रगड़ कर मारा, छक्के बदले घूंसा, बदतमीजी के चव्वे के जवाब में डंडे उखाड़ कर तमाचा, भुस भर दिया, मुंह तोड़ दिया’ जैसी शब्दावली को आम बना दिया।
शरजाह में जावेद मियांदाद के छक्के के बारे में तो वे कई साल तक लिखते रहे कि भारतीयों में किलर-इंस्टिक्ट की कमी है। भारत जब भी कभी जीतता, उन्हें फौरन लगता कि शरजाह का बदला ले लिया गया है।
यही प्रक्रिया चलते-चलते इस मुकाम तक आ पहुंची है कि पटौदी और हनीफ मुहम्मद द्वारा दोनों देशों की सरकारों को भेजे गए संयुक्त टेलिग्राम की कल्पना तक नहीं की जा सकती। मोहाली में मैच हार जाने के बाद पाकिस्तानी कप्तान शाहिद अफरीदी ने इंजमाम-उल-हक और शुएब मलिक जैसे पिछले कप्तानों की तरह अल्लाह का शुक्र अदा करके हार की सफाई देने की कोशिश नहीं की।
वे किसी भी आधुनिक खिलाड़ियों की तरह बोले, भारत को बधाई दी और अपनी हार पर निराशा व्यक्त की। इससे लगाकि वे शायद कुछ अलग तरह के कप्तान साबित होंगे। लेकिन अफरीदी भारतीय खिलाड़ी गौतम गंभीर के उस वक्तव्य को नजरअंदाज करने में नाकाम रहे जिसमें उन्होंने अपने कश्मीर भ्रमण का हवाला देते हुए कहा था कि एक फौजी से बातचीत के बाद उन्होंने तय किया था कि वे पाकिस्तान से कभी नहीं हारेंगे।
गंभीर ने जब श्रीलंका को हराने के बाद वर्ल्ड कप जीत को 26/11 के मृतकों को समर्पित किया तो जाहिर था कि उनका यह समर्पण कश्मीर वाले बयान से जोड़ कर देखा गया। अफरीदी ने पाकिस्तान वापिस जा कर अपनी पहली प्रेस कांप्रेंफस में पहले अपने देश के मीडिया को और फिर दूसरे बयान में भारत के मीडिया को कोसा कि सीमा के इधर-उधर दोनों मीडियाओं की कोशिशों से खेल को युद्ध में बदलने की कोशिश की गई।
इसके बाद गंभीर के वक्तव्य का तुर्की-ब-तुर्की जवाब देते हुए वे अपना संयम खो बैठे और फिर उनकी बातों पर हिंदू-मुसलमान, छोटा दिल-बड़ा दिल, अपना-तुम्हारा हावी हो गया। अफरीदी ने बाद में सफाई देने की कोशिश की, पर जितना नुकसान होना था हो चुका था।
आज भारतीय क्रिकेट युद्धप्रिय राष्ट्रवाद और बाजार की ताकतों के जहरीले जोड़ के साथ एक ऐसे मुकाम पर खड़ा हुआ है जिसमें खेल के निर्मल आनंद की कोई जगह नहीं है। इसमें खेल भावना लगभग गायब है, इस राष्ट्रवाद के शब्दाडंबर में मुसलमानों के खिलाफ कुछ भी कहने से परहेज किया जाता है।
समझ सकते हैं कि देश की जनता की रगों में किस चतुराई से इस राष्ट्रवादीय और बाजार के ज़हरीले मेल क्रिकेट को परोसा गया और बाद में इसको IPL और टवेंटी – टवेंटी में विभाजित कर जमकर बेचा गया और अरबों का मुनाफा कूटा गया, जिसमें बाजार और BCCI की बड़ी हिस्सेदारी थी।
(लेख हाशिया ब्लॉगस्पॉट से साभार)
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