स्पेशल स्टोरी – साभार : Newslaundry.
देश की नफरती न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनल्स देश में सांप्रदायिक प्रोपैगंडा के भोंपू बनकर सामाजिक माहौल को जहरीला बना रहे हैं, आम लोगों के बीच सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को गहरा कर रहे हैं और गोहत्या-लव जेहाद-मंदिर/मस्जिद जैसे मामलों में अफवाहों/झूठी ख़बरों/छोटी-मोटी घटनाओं पर मरने-मारने को उतारू भीड़ तैयार कर रहे हैं।
याद कीजिए, पिछले साल बुलंदशहर में गोहत्या की अफवाह के आधार पर जिस तरह भीड़ मरने-मारने पर उतारू हो गई और एक पुलिस इन्स्पेक्टर की हत्या कर दी गई थी, उस त्रासद घटना की जमीन इसी जहरीले सांप्रदायिक प्रोपैगंडा ने तैयार की थी। यह जहर कितनी गहराई तक फ़ैल गया है और माहौल किस हद तक बिगड़ चुका है, इसका अंदाज़ा कुछ अखबारी रिपोर्टों और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों से बात करके लगाया जा सकता है जिनके मुताबिक, बुलंदशहर और उसके आसपास के जिलों के अनेक गांवों-कस्बों-मुहल्लों में जहां कल तक हिन्दू-मुसलमान एक-दूसरे के साथ मिलकर रहते थे, होली-ईद-दीवाली साथ मनाते थे और एक-दूसरे के सुख-दुःख में साथ खड़े होते थे, वहां आज उनके बीच नफरत-अविश्वास की दीवार कड़ी हो गई है, सामाजिक संबंध टूट से गए हैं, बातचीत बंद हो चुकी है और एक स्थाई तनाव का माहौल है।
ऐसा लगता है कि जैसे देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को स्थाई बनाए रखने के लिए हमेशा एक मद्धम आंच पर जारी रहनेवाली हिंसा और दंगे-फसाद को स्वीकार्य मान लिया गया है, इसके लिए अनुकूल माहौल बनाने में नफरती न्यूज चैनल जोरशोर से लगे हुए हैं। लेकिन यह भारत जैसे धार्मिक-जातीय-एथनिक-भाषाई रूप से इतने विविधतापूर्ण राष्ट्र के लिए कितना खतरनाक और घातक हो सकता है, इसका अंदाज़ा इन न्यूज चैनलों को नहीं है।
असल में, उन्हें न तो भारत के इतिहास का और न ही दुनिया के कई देशों के इतिहास का पता है जिन्हें सांप्रदायिक हिंसा की भारी कीमत चुकानी पड़ी है, यहां अफ़्रीकी देश रवांडा के एथनिक नरसंहार और जर्मनी में नाज़ी नरसंहार का उल्लेख जरूरी है. इस साल अप्रैल में रवांडा के एथनिक नरसंहार के 25 साल पूरे हुए जिसमें तुत्सी जनजाति के लगभग 8 लाख लोग बेरहमी से क़त्ल कर दिए गए थे।
यह साल 1994 की बात है. गरीब और पिछड़े देश रवांडा में बीते तीन सालों से दो प्रमुख जनजाति समूहों- हुतू और तुत्सी के बीच गृहयुद्ध छिडा हुआ थ,. दोनों जनजाति समूहों के बीच तनाव बढ़ा हुआ था जिसमें स्थानीय और क्षेत्रीय राजनीति, सैन्य विद्रोहियों और हथियारबंद दस्तों (मिलिशिया) के साथ-साथ रवांडा के मीडिया खासकर कुछ रेडियो स्टेशनों की सीधी भूमिका थी।
लेकिन 1994 में 7 अप्रैल से लेकर मध्य जुलाई के बीच 100 दिनों में जो हुआ, वह सिर्फ रवांडा और अफ़्रीकी इतिहास का नहीं बल्कि आधुनिक विश्व के इतिहास का सबसे भयावह नरसंहार था जिसमें हुतू नेतृत्ववाली सरकार की सेना और गैर कानूनी हुतू मिलिशिया समूहों ने तुत्सी जनजाति के लगभग 8 लाख से ज्यादा नागरिकों की हत्या कर दी। एक मोटे अनुमान के मुताबिक, रवांडा में आपसी नफरत और हिंसा की इस आग में दस लाख लोग मारे गए।
लेकिन इस भयानक नरसंहार के अपराधियों और दोषियों की जब भी चर्चा होती है, उसमें उसके एक सबसे प्रमुख अपराधी और नरसंहार का माहौल बनानेवाले का जिक्र कम होता है. वह था- वहां का ‘मीडिया’, खासकर एक पत्रिका- कंगूरा और कुछ रेडियो स्टेशन जिन्होंने उस दौरान कई महीनों से तुत्सी जनजाति के खिलाफ न सिर्फ एकतरफा नफरत, घृणा और कुप्रचार का प्रोपैगंडा अभियान चला रखा था बल्कि नरसंहार से ठीक पहले रेडियो स्टेशन-आरटीएलएम ने खुलेआम तुत्सी लोगों के खिलाफ “आखिरी युद्ध” छेड़ने और “तिलचट्टों (काक्रोचों) का सफाया” करने का आह्वान किया था, यही नहीं, RTLM रेडियो ने नयह भी बताया.कि रसंहार के दौरान अपने प्रसारणों में किन लोगों को मारा जाना है, उनकी लिस्ट प्रसारित की और वे कहां मिलेंगे।
“नफरत के रेडियो” (Hate Radio) के नाम से कुख्यात इन रेडियो स्टेशनों खासकर RTLM ने अपने समाचारों और कार्यक्रमों में तुत्सी जनजाति के खिलाफ लगातार नफरत और घृणा से भरा प्रचार चलाया जिसमें यह बताया जाता था कि तुत्सी लोग गैर ईसाई हैं और वे तुत्सी राजतन्त्र कायम करने की कोशिश कर रहे हैं जिसमें हुतू लोगों को गुलाम बनाकर रखा जाएगा। इन रेडियो स्टेशनों ने हुतू और तुत्सी समुदाय के बीच किसी भी बातचीत या शांति समझौते का खुलकर विरोध किया, शांति के प्रयासों के खिलाफ अभियान चलाया, नरम और मध्यमार्गी नेताओं/जनरलों का विरोध किया और हुतू मिलिशिया समूहों का समर्थन किया। इस तरह के जहरीले प्रचार अभियान के जरिये रेडियो स्टेशन- RTLM और पत्रिका “कंगूरा” ने हुतूओं में तुत्सिओं के खिलाफ डर, नफरत और अविश्वास का ऐसा जहरीला और भड़काऊ माहौल बना दिया जिसमें हुतू, तुत्सियों के कत्लेआम पर उतर आए।
बाद में रवांडा में नरसंहार के आरोपियों के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए गठित अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायालय (International Criminal Tribunal) ने 2003 में रेडियो स्टेशन-RTLM और पत्रिका “कंगूरा” के कर्ताधर्ताओं के खिलाफ नरसंहार, नरसंहार के लिए लोगों को उकसाने/भड़काने और मानवता के खिलाफ अपराध जैसे आरोपों में मुक़दमा चलाया। अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायालय ने इन आरोपों को सही पाया और RTLM के फर्डिनांड नाहिमाना को आजीवन कारावास और ज्यां बास्को बार्यग्विज़ा को 32 साल और “कंगूरा” के हासन एन्ग्ज़े को 35 साल जेल की सजा सुनाई। इसके साथ ही एक और कोर्ट ने RTLM की एनाउंसर वैलेरी बेमेरिकी को नरसंहार के लिए लोगों को भड़काने के आरोप में 2009 में आजीवन कारावास की सजा सुनाई।
इसके बाद देखें तो 20 वीं सदी के पूर्वार्द्ध में जर्मनी में नाज़ी पार्टी और उसके नेता एडोल्फ हिटलर के उभार के दौरान वहां के मीडिया का एक बड़ा हिस्सा नफरती मीडिया में बदल गया था जिसने यहूदी समुदाय के साथ-साथ उदार-मध्यमार्गी बुद्धिजीवियों, वाम ट्रेड यूनियनों आदि के खिलाफ जहरीला और भड़काऊ प्रोपैगंडा अभियान चलाया और उनके खिलाफ हिंसा के लिए उकसाया।
यहां जर्मनी में न्यूरेमबर्ग शहर से 1923 में शुरू हुए साप्ताहिक अखबार ‘डे’र स्टूर्मर’ (द स्टोर्मर) का उल्लेख जरूरी है जो नाज़ी पार्टी का मुखपत्र न होते हुए भी जहरीले और आक्रामक नाज़ी प्रोपैगंडा का भोंपू बनकर उभरा। इस अखबार का प्रकाशक/संपादक जूलियस स्ट्रिचर था जिसने यहूदी समुदाय के नागरिकों के खिलाफ एकतरफा जातीय (रेसियल) घृणा और नफरत का ऐसा जहरीला अभियान चलाया जो नाज़ी पार्टी के मुखपत्र में भी नहीं छपता था. उसके अखबार में यहूदियों की खिल्ली उड़ानेवाले कार्टूनों से लेकर उनके बारे में झूठी लोक धारणाओं पर आधारित गल्प छापे गए, जैसे वे ईसाई बच्चों को मारकर उनका खून पीते हैं या खून निकालकर उसका अपने धार्मिक कर्मकांड में इस्तेमाल करते हैं।
यहां तक कि इस टैबलायड अखबार की हर प्रति में पहले पृष्ठ के निचले हिस्से में यह ध्येय वाक्य छपता था: “यहूदी हमारा दुर्भाग्य हैं.” ‘डे’र स्टूर्मर’ की खासियत यह थी कि वह ऐसे आमफहम मुद्दे उठता था जिसमें ज्यादा सोचने-विचारने की जरूरत नहीं होती थी। वह यहूदी समुदाय का ऐसा नकारात्मक और अश्लील चित्रण करता था जिससे बहुसंख्यक जर्मन समुदाय में उनके खिलाफ नफरत फैले और अविश्वास पैदा हो. वह यहूदियों के बारे में झूठी और अफवाहों पर आधारित रिपोर्टों से आम लोगों में उनका बढ़ा-चढ़ाकर और काल्पनिक डर पैदा करता था, वह यहूदियों को जघन्य सेक्स अपराधों का दोषी बताकर पेश करता था।
माना जाता है कि उसने इस जहरीले प्रोपैगंडा से खूब कमाई की, अपनी चरम लोकप्रियता के दौर में 1937 में अखबार का प्रसार 4.86 लाख प्रतियों तक पहुँच गया था जिसने स्ट्रिचर को करोड़पति बना दिया, लेकिन स्ट्रिचर के ‘डे’र स्टूर्मर’ ने जर्मनी में नाज़ी प्रोपैगंडा के भोंपू के बतौर यहूदियों के खिलाफ जिस तरह का जहरीला प्रचार अभियान चलाया, उसकी यहूदियों के नरसंहार में बड़ी भूमिका थी। आश्चर्य नहीं कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद नाज़ी अधिकारियों के खिलाफ युद्ध अपराध में मुकदमे चले तो स्ट्रिचर के खिलाफ भी मानवता के खिलाफ अपराध में मुक़दमा चला और उसे फांसी की सजा हुई।
सवाल है कि रवांडा के एथनिक नरसंहार और जर्मनी के जातीय कत्लेआम और उसकी जमीन तैयार करने में रेडियो स्टेशन- RTLM, पत्रिका ‘कंगूरा’ और ‘डे’र स्टूर्मर’ जैसे जन माध्यमों की सक्रिय भूमिका और भागीदारी के आज क्या सबक हैं जिन्हें बाद में ‘मानवता के खिलाफ अपराध’ माना गया ?
आज अधिकांश नफरती न्यूज चैनल जिस मोटे मुनाफे के लालच और राजनीतिक/बिजनेस हितों के कारण जहरीले सांप्रदायिक प्रोपैगंडा को समाज और लोगों को नसों में उतारने के अभियान में जुटे हैं, वह देश और समाज के लिए बहुत भारी पड़ रही है, अगर यह सांप्रदायिक नफरत, घृणा और अविश्वास एक बार लोगों के अन्दर गहराई से बैठ गई तो उसे बाहर निकालने में कई पीढियां लग जायेंगी।
याद रहे देश एक बार सांप्रदायिक विभाजन की भयानक आग से गुजर चुका है, उसने विभाजन की विभीषिका झेली है, उसके घाव अब भी स्मृतियों में हैं, अगर उस विभीषिका को दोहराने से बचना है तो हमें देश के नए आरटीएलएमों, ‘कंगूरों’ और ‘डे’र स्टूर्मरों’ से सावधान रहना होगा जो जाने-अनजाने देश को उसी ओर धकेल रहे हैं।
क्या हम जहरीले सांप्रदायिक प्रोपेगंडा के भयावह नतीजों से सबक सीखने को तैयार हैं ?
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