1933 में हिटलर के सत्ता में आने के बाद यहूदियों को व्यवस्थित और सुनियोजित तरीके से निशाना बनाया जाने लगा, उन्हें सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक, व्यापारिक और मानसिक तौर पर जर्मनी में फ़िज़ूल और बोझ साबित करने के मनोवैज्ञानिक नाज़ी एजेंडे अमल में लाये जाने लगे, इसके लिए हिटलर ने जर्मनी की जनता के साथ ग़ज़ब का माइंड गेम खेला था।
हिटलर को शायद मनोविज्ञान की परख थी या फिर ये उसमें जन्मजात खूबी थी पता नहीं, पर उसने प्रचार माध्यमों के सहारे शुरुआत अपने आपको जनप्रिय,लोकप्रिय और शक्तिशाली नेता के रूप में स्थापित करने से की।
इसके लिए उसने कई हथकंडे अपनाये, सबसे पहला था प्रचार तंत्र की सवारी करना उसका अपने हित के लिए इस्तेमाल करना, उसने सबसे पहले अपनी छवि निर्मल, कोमल और लोगों से प्यार करने वाले व्यक्ति के रूप में प्रचारित की, उसके लिए उसने बच्चो के साथ और जानवरों को दुलारते हुए कई फोटो शूट कराये।
हिटलर के बारे में पढ़ेंगे तो उसके कई फोटोज़ बच्चों के साथ हैं, कई बच्चे नाज़ी वर्दी में हिटलर के साथ फोटो में नज़र आते हैं, तो कहीं ख़ास तौर पर प्रोपगंडे के तहत बच्चों के साथ अलग अलग मुद्राओं में फोटो खिंचवाए गए थे।
हिटलर ने उस दौर में मीडिया की ताक़त को पहचान लिया था, हिटलर ने जोज़ेफ गोयबल्स को अपना प्रचार मंत्री नियुक्त किया था जिसे आज भी सोशल मीडिया वाले यूज़र याद करते हैं, कई बार उसका कई मामलों में उदाहरण देते हैं। वो कई बार खास वजहों के लिए फोटो सेशंस कराता था, कभी बच्चों के साथ तो कभी हिरणों के साथ, ये फोटो उसकी छवि निर्माण के लिए काम में लिए जाते थे।
यहाँ हिटलर के पूरे प्रोपगंडे को Exploring Nazi Propaganda and the Hitler Youth Movement को पढ़कर समझ सकते हैं।
उसके इस तरह के प्रोपेगंडा फोटो देख कर युवाओं और बच्चों में उसकी छवि एक नज़दीकी निर्मल मन के मित्र या अपने पिता जैसी ही बनती थी, और ये तरकीब उस समय बखूबी काम भी कर गयी। और एक ख़ास बात कि हिटलर के बारे में एक प्रोपेगंडा और किया गया था कि वो जर्मनी और वहां की जनता के लिए दिन रात अथक काम करते हैं, जबकि The Sun जैसा प्रतिष्ठित अखबार लिखता है कि हिटलर सुबह जल्दी उठने वालों में से बिलकुल नहीं था, वो दोपहर में सोकर उठता था।
हिटलर और बच्चों के बीच के समीकरण पर ध्यान दें तो एक बात और निकल कर सामने आयी कि हिटलर जर्मनी के बच्चों को अपने जैसा बनाना चाहता था, ताकि आगे किसी भी परिस्थिति में युवा उसके खिलाफ न जा सकें।
हिटलर जर्मनी के हर एक जन तक अपनी सोच डालना चाहता है, उसके दिमाग में एक प्लान था, जिससे वह चाहता था कि जर्मन बच्चे उसके लिए तैयार हो जायें, हिटलर बच्चों को शुरुआत से ही अपनी विचारधारा को बताना चाहता था, जिससे बच्चे उसके अधीन हो जायें. अपने इस प्लान की शुरुआत उसने शिक्षा और स्कूलों से की।
वह जानता था कि स्कूल ही एकमात्र ऐसी जगह थे, जहां बच्चे को जैसा सिखाया जायेगा, वह वैसा ही बनेगा. उसने तुरंत जर्मन स्कूलों का पाठ्यक्रम बदलने का आदेश दे दिया, हिटलर के आदेश के बाद थोड़े ही समय में जर्मनी की पढ़ाई को पूरी तरह बदल दिया गया, माना जा सकता है कि इसी के साथ जर्मनी में भविष्य के लिए कई सारे हिटलर्स बनाने का काम शुरू हो चुका था।
पहले स्कूल की किताबों में यहूदियों के साथ-साथ विश्व युद्ध तक का जिक्र किया गया था, उनमें बताया गया था कि आखिर जर्मनी पहला विश्व युद्ध क्यों हार गई था, हिटलर इस ज्ञान को आगे नहीं बढ़ाना चाहता था, इसलिए उसने किताबों का फेर-बदल कर दिया था, वह उन्हें अपना नया पाठ पढ़ाना चाहता था, उसने नाज़ी नजरिए से ओतप्रोत नई किताबें मुद्रित कराई और स्कूल में अनिवार्य कर दीं, इनमें सिर्फ जर्मन सेना की उपलब्धियों का ही ज़िक्र था।
कहते हैं कि कई पाठों में तो यह तक लिख दिया गया था कि जर्मनी की खस्ता हालत यहूदियों की वजह से हुई थी, किताबों के जरिए बच्चों के अंदर भेद भाव की आग पैदा की जा रही थी, इतना ही नहीं हिटलर ने टीचरों को भी नहीं बक्शा था।
उसने नाज़ी टीचर समूह बना दिया था, समूह का काम था कि वह इस बात का ख्याल रखे कि बच्चों को नाजी के अलावा कुछ और न पढ़ाया जाए, जर्मनी के बच्चों को किताबों के जरिए बताया जा रहा था कि जर्मन नाज़ी दुनिया में सबसे बेहतर हैं, हिटलर का प्लान सफल हो रहा था. जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते जा रहे थे, वह यहूदियों को अपना दुश्मन मानने लगे थे। इस बारे में आप यहाँ ‘How did the Nazis control education’ में पढ़ सकते हैं
और The Educational Theory of Adolph Hitler में भी पढ़ सकते हैं।
नेक्स्ट जनरेशन को ब्रेन वाश करने के बाद हिटलर ने ‘Hitler Youth’ और Hitler Youth Movement’ नाम से जर्मनी में एक कैम्पेन शुरू किया, जर्मनी में रहने वाले हर बच्चे को इसमें हिस्सा लेना अनिवार्य कर दिया गया, महज 10 की उम्र में बच्चों को इस कैम्पेन में जोड़ने की प्रक्रिया शुरु कर दी जाती थी, भर्ती से पहले बच्चोंं की जांच होती थी कि कहीं वह यहूदी तो नहीं हैं।
हिटलर ने देश में उपजी अन्य समस्याओं के लिए यहूदियों और मार्क्सवादियों को दोषी ठहराया और यहीं से उसने आर्यों का एक वंश बनाने की बात कही, बताया जाता है कि जब हिटलर सत्ता में आया तो हिटलर की सोच सरकारी मुहीम बन गई. जातिवाद की बातें खुलेआम पोस्टर, रेडियो, फिल्म, अखबार और यहाँ तक की स्कूलों में बताई जाने लगीं।
इतना ही नहीं, दूसरी नस्ल के लोगों के बच्चे न हो हिटलर ने इसके लिए भी डॉक्टरों को जबरन नसबंदी करने के लिए कह दिया था, स्कूल में टीचर बच्चों की जांच करते थे कि वह असल में आर्य वंश से हैं कि नहीं, जो आर्य होते उनका खास ख्याल रखा जाता, लेकिन जो आर्य नहीं होते उन्हें स्कूल में प्रताड़ित किया जाता था।
हिटलर ने एक खुफिया कार्यक्रम शुरू किया गया जिसका नाम था Lebensborn, लेबेंसबॉर्न का एक मात्र उद्देश्य था आर्य वंश का विस्तार, और इसकी ज़िम्मेदारी दी गयी नाजी नेता हैन्रिख़ हिम्म्लर को।
इसके लिए हिम्म्लर ने जर्मनी और उसके आस-पास से आर्य वंश की लड़कियों को ढूंढना शुरू कर दिया, उन लड़कियों का एक ही काम था आर्य वंश के बच्चों को जन्म देना। इसके लिए हिम्म्लर ने अपने एसएस संघ के सैनिकों को चुना. वह उन्हें प्रोत्साहित करता था कि वह उन लड़कियों के साथ शारीरिक संबंध बनाएं, ताकि वह महिलाएं शुद्ध आर्य बच्चों की माँ बन पाएं।
लेबेंसबॉर्न में स्वीकार किए जाने के लिए महिलाओं में नस्लीय विशेषताओं का होना जरूरी था और उन्हें नाजी और हिटलर की विचारधारा के प्रति विश्वास और समर्थन देना होता था. जो गर्भवती महिलाएं अपने आर्य वंश को साबित कर पाती थीं उन सभी को सरकार द्वारा विशेष सहायता और उपचार दिया जाता था।
जो भी बच्चा उन्हें आर्य जैसा दिखाई देता उसे जर्मन सैनिक अपने साथ ले आते. इन सभी बच्चों को जबरदस्ती नाजी सोच के बारे में बताया जाता था. उन्हें हिटलर अपनी एक फौज के रूप में देख रहा था जो आगे चलके दुनिया पर राज करेगी।
लेबेंसबॉर्न की सोच से खुद एसएस सैनिक भी नहीं बचे थे. उन्हें भी सख्त आदेश थे कि अपनी पत्नियों से उन्हें करीब चार बच्चे तो करने ही हैं. किसी भी तरह से हिटलर आर्य और नाजी को एक करके दुनिया अपनी मुट्ठी में करना चाहता था।
दूसरे विश्व युद्ध के खात्मे के बाद हिटलर का आर्य साम्राज्य का सपना भी खत्म हो गया, 1936 से 1945 के बीच करीब 6,000 से 8,000 बच्चे लेबेंसबॉर्न क्लिनिक में पैदा हुए थे। बच्चों को बाद में जर्मन के चंगुल से तो बचा लिया गया था, लेकिन उनमें से अधिकतर बच्चों को अपने घर के बारे में कुछ याद नहीं था। बाद में वो सब एक नई जिंदगी जीने लगे. कुछ को तो कई लोगों ने गोद ले लिया था, हिटलर के एक प्रोग्राम ने न जाने कितनी ही जिंदगियां बर्बाद कर दी थी।
फिर लाया गया ‘Nuremberg Laws‘ :
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ये ‘न्यूरेम्बर्ग कानून‘ ख़ास तौर पर जर्मन यहूदियों को शैक्षिक, सामाजिक, आर्थिक, व्यापारिक और मानसिक तौर पर बिलकुल अलग थलग और जर्मनी पर बोझ जैसा साबित करने के साथ इन्हे जर्मनी की नागरिकता से भी वंचित करने वाला था।
इसी नाज़ी प्रोपेगण्डे के तहत 15 सितंबर 1935 के दिन न्यूरेम्बर्ग कानून जिसे ‘THE NUREMBERG RACE LAWS’ भी कहते हैं, बनाकर जर्मन यहूदियों को जर्मन नागरिकता से वंचित कर दिया गया, और उल्टे स्वस्तिक को नाजी जर्मनी का आधिकारिक प्रतीक बना दिया गया। न्यूरेम्बर्ग शहर में हुई नाजी पार्टी की वार्षिक रैली में ये यहूदी विरोधी कानून पेश किया गया, उस शहर के नाम पर ही इस काले क़ानून का नाम ‘न्यूरेम्बर्ग कानून’ पड़ा।
बाद में रेस्टोरेशन ऑफ प्रोफेशनल सिविल सर्विसेज नाम का एक कानून बना, जिसके तहत गैर आर्यों को सिविल सर्विस में आने पर प्रतिबंध लगा दिया गया. इस कानून के कारण नाजियों के राजनीतिक प्रतिद्ंवद्वियों के सिविल सर्विस में आने से रोक लग गई।
न्यूरेम्बर्ग कानून के तहत चार जर्मन दादा-दादियों वाले लोगों को जर्मन माना गया, लेकिन जिनके तीन या चार दादा-दादी यहूदी थे, उन्हें यहूदी माना गया. एक या दो यहूदी दादा-दादी वाले लोगों को मिश्रित खून वाला वर्णसंकर कहा जाता था।
इस तरह के कानूनों ने यहूदियों से जर्मन नागरिकता तो छीन ही ली, यहूदियों और जर्मनों के बीच शादी पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया, इसे लव जेहाद की तरह समझ सकते हैं, शुरुआत में तो यह कानून सिर्फ यहूदियों के लिए ही बने थे लेकिन बाद में इन्हें जिप्सियों या बंजारों और अश्वेतों पर भी लागू कर दिया गया।
न्यूरेम्बर्ग कानून लागू होने के साथ ही जर्मनी में :-
यहूदी व्यवसायों का बहिष्कार शुरू हो गया था।
यहूदी जर्मनी के स्कूलों में या यूनिवर्सिटीज में न पढ़ा सकते थे, ना ही पढ़ सकते थे।
यहूदी सरकारी नौकरियों से वंचित कर दिए गए थे।
यहूदियों के वकालत और डाक्टरी पेशे पर रोक लगा दी गयी।
यहूदी किताबें प्रकाशित नहीं कर सकते थे।
यहूदी सिनेमा, थिएटर्स और वेकेशन रिसॉर्ट्स का आनंद नहीं ले सकते थे।
1937 तक नाज़ियों ने यहूदियों के व्यापर धंधों को ज़ब्त करना शुरू कर दिया था।
इसके चलते कई नामी जर्मन यहूदी देश से भाग गए थे, जिसमें अल्बर्ट आइंस्टीन भी थे।
हिटलर ने अपने कुत्सित नाज़ी एजेंडे को मनोवैज्ञिक माइंड गेम के साथ लागू किया और 1939 में जर्मनी द्वारा विश्व युद्ध भड़काने के बाद हिटलर ने यहूदियों को जड़ से मिटाने के लिए अपने अंतिम हल ( Final Solution) को अमल में लाना शुरू किया।
फाइनल सोल्युशन एजेंडे के तहत हिटलर के सैनिक यहूदियों को कुछ खास इलाकों में ठूंसने लगे। उनसे काम करवाने, उन्हें एक जगह इकट्ठा करने और मार डालने के लिए विशेष यातना शिविर स्थापित किए गए, जिनमें सबसे कुख्यात था ‘Auschwitz concentration camp’ ऑस्चविट्ज केम्प । यहूदियों को इन शिविरों में लाया जाता और वहां बंद कमरों में जहरीली गैस छोड़कर उन्हें मार डाला जाता।
जिन्हें काम करने के काबिल नहीं समझा जाता, उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाता, जबकि बाकी बचे यहूदियों में से ज्यादातर भूख और बीमारी से दम तोड़ देते। युद्ध के बाद सामने आए दस्तावेजों से पता चलता है कि हिटलर का मकसद दुनिया से एक-एक यहूदी को खत्म कर देना था।
युद्ध के छह साल के दौरान नाजियों ने तकरीबन 60 लाख यहूदियों की हत्या कर दी, जिनमें 15 लाख बच्चे थे। यहूदियों को जड़ से मिटाने के अपने मकसद को हिटलर ने इतने प्रभावी ढंग से अंजाम दिया कि दुनिया की एक तिहाई यहूदी आबादी खत्म हो गई।
इसके तहत एक समुदाय के लोग जहां भी मिले, वे मारे जाने लगे, सिर्फ इसलिए कि वे यहूदी पैदा हुए थे। इन्ही कारणों के चलते ही इसे अपनी तरह का नाम दिया गया था ‘Holocaust‘ (होलोकॉस्ट).
हत्यारे हिटलर का ये माइंड गेम मनोविज्ञान, प्रबंधन और क्रियान्वयन के लिहाज से विलक्षण था, उसने बड़े ही सुनियोजित और मनोवैज्ञानिक तरीके से अपने नाज़ी एजेंडों को लागू कर 60 लाख यहूदियों का नरसंहार कराया, यही वजह है कि आज हिटलर को दुनिया एक दुःस्वप्न की तरह याद करती है।
चित्र व सामग्री : गूगल से साभार !
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