24 सितंबर 2002 को अक्षरधाम मंदिर पर हुए आतंकी हमले में पुलिस द्वारा गिरफ्तार 6 जनों को सुप्रीम कोर्ट ने 16 मई 2014 को बरी कर दिया था। निर्दोष होते हुए भी इन सभी को अपने जीवन के 11 साल सलाखों के पीछे गुजारने पड़े। इन्हीं में से एक थे अहमदाबाद के रहने वाले मुफ्ती अब्दुल कय्यूम मंसूरी, जिन्होंने बेगुनाह होते हुए भी जेल में काटे ग्यारह सालों अनुभव पर एक किताब ‘11 साल सलाखों के पीछे’ लिखी थी।
तब गुजरात सरकार ने किताब के विमोचन कार्यक्रम को रोकने के लिए पूरा ज़ोर लगा दिया था, कार्यक्रम स्थल के आसपास पुलिस की टीमें जमा हो गई थीं। तब मुफ्ती अब्दुल कय्यूम मंसूरी ने दिल्ली में अपनी किताब का विमोचन कराया था। उनकी वो किताब ’11 साल सलाखों के पीछे’ बेहद लोकप्रिय हो गई थी, उस दिन दिल्ली के उस छोटे-से कार्यक्रम के दौरान लॉन्च की गई किताब की पहले चार दिन में ही 5,000 प्रतियां बिक चुकी थीं।
मुफ्ती अब्दुल कय्यूम मंसूरी की गिरफ़्तारी की कहानी कुछ इस तरह से शुरू हुई थी कि गुजरात पुलिस के मुताबिक कय्यूम अक्षरधाम मंदिर पर हुए हमले के मुख्य आरोपी थे। इस मंदिर पर सितंबर 2002 में दो फिदायीनों ने हमला किया था और 30 से ज्यादा लोगों की इस वारदात में मौत हुई थी। पूरी रात चली पुलिस कार्रवाई में आखिरकार दोनों फिदायीन भी ढेर कर दिए गए थे। इन फिदायीनों की जेब से कथित तौर पर उर्दू में लिखी एक चिट्ठी पाई गई थी और पुलिस का दावा था कि वह चिट्ठी मुफ्ती अब्दुल कय्यूम ने लिखी थी। वारदात की जांच अहमदाबाद पुलिस की क्राइम ब्रांच ने की और हमले के करीब एक साल बाद मुफ्ती को बतौर आरोपी गिरफ्तार कर लिया गया।
जुलाई 2006 में पोटा की एक विशेष अदालत ने आदम अजमेरी, शान मियां और मुफ्ती अब्दुल कय्यूम मोहम्मद सलीम शेख को उम्रकैद, अब्दुल मियां कादरी को 10 साल और अल्ताफ हुसैन को पांच साल जेल की सजा सुनाई थी। तब सुरक्षा कारणों से अदालत साबरमती जेल में बैठी थी। इन लोगों पर हत्या, आपराधिक साजिश और हमलावरों की सहायता करने और उन्हें उकसाने का आरोप लगाया गया था।
इसके बाद शुरू हुआ पुलिसिया जुल्म का सिलसिला। मुफ्ती का कहना है कि उसके बाद उन पर आरोप कबूल कर लेने के लिए बेहद दबाव डाला गया और उनके साथ काफी बदसलूकी की गई। गलत तरीके से उनके खिलाफ सबूत जुटाए गए और फिर स्थानीय कोर्ट ने उन्हें फांसी की सजा सुना दी। लेकिन उनकी कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। मुफ्ती ने अपने वकीलों के जरिये सुप्रीम कोर्ट में अपील की, जहां वह निर्दोष करार दिए गए और आखिरकार 11 साल जेल में बिताने के बाद वह आज़ाद हुए।
तब सर्वोच्च अदालत ने सभी छहों को बरी करने के साथ साथ गुजरात पुलिस के इरादे पर भी गंभीर सवाल उठाए थे।
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