शायद ही कोई होगा जिसने ये ख़बर नहीं पढ़ी होगी कि यूरोप और अमरीका में इस्लाम तेज़ी से फ़ैल रहा है, और इस्लाम ही एक ऐसा मज़हब है जिसे लोग सबसे ज़्यादा अपना रहे हैं, 2010 में अमरीका में हुई धार्मिक संगणना के आंकड़ों के अनुसार अमरीका में सबसे तेज़ी से फैलने वाला मज़हब इस्लाम है।
और सबसे ख़ास बात ये कि 9 /11 हमलों के बाद इसमें काफी तेज़ी आयी है।
यही कुछ हाल यूरोप का भी है, Pew Research के आंकड़ों के अनुसार यूरोप में भी इस्लाम तेज़ी से फ़ैल रहा है, यूरोपियन यूनियन जिसमें (नॉर्वे और स्विट्ज़रलेंड भी आता है) के देशों में मोटे तौर पर इनका प्रतिशत 3.8% से बढ़कर 4.9% पहुँच गया है।
यह सब बदलाव और तेज़ी 9 /11 हमलों के बाद ही हुई है, एक Report के अनुसार आज अमरीका में ही मुसलमानों की तादाद 9 /11 हमलों के बाद से दोगुनी है।
इसके पीछे की वजहों पर नज़र डालेंगे तो कई फैक्टर्स नज़र आएंगे, 9 /11 हमलों के बाद अमरीका और यूरोप में मुसलमानो के खिलाफ नफरत का पहाड़ टूट पड़ा, सैंकड़ों गिरफ्तारियां हुईं, इनके खिलाफ नस्लीय हिंसा हुई, मस्जिदें जलाई गयीं, और इस्लामोफोबिया का क़हर पूरे अमरीका और यूरोप के मुसलमानो पर टूट पड़ा।
यहाँ बात इस्लामोफोबिया की आयी है तो इस पर भी रुक कर नज़र डाल लीजिये, इस लफ्ज़ को पैदा करने वाले और इसे शातिराना ढंग से दुनिया भर में फ़ैलाने के पीछे कई दक्षिणपंथी अमरीकी, इज़राईली और नव नाज़ी ग्रुप्स काम कर रहे हैं।
सेंटर फॉर अमेरिकन प्रॅाग्रेस द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में मुसलमानों का ख़ौफ़ फैलाने के लिए चलाये गये दस साल लंबे अभियान के पीछे एक छोटा सा समूह है जिसमें एक दूसरे से ताल्लुक रखने वाले कुछ संस्थान, ‘थिंक टैंक’, बुद्धिजीवी और ‘ब्लॉगर’ शामिल हैं।
130 पन्नों की Fear, Inc. The Roots of the Islamophobia Network in America शीर्षक वाली Report में सात संस्थाओं की शिनाख़्त की गई है जिन्होंने चुपचाप 4 करोड़ 20 लाख डालर ऐसे व्यक्तियों और संगठनों को दिये जिन्होंने वर्ष 2001 से 2009 के बीच मुसलमानों के खिलाफ इस्लामोफोबिया मुहिम चलाई।
इनमें ऐसी वित्तपोषी संस्थायें शामिल हैं जो लंबे समय से अमेरिका में चरम दक्षिणपंथ से जुड़ी हुई हैं और कई यहूदी पारिवारिक संस्थायें भी शामिल हैं जिन्होंने इज़राइल में दक्षिणपंथी और उपनिवेशी समूहोंका समर्थन किया है, इनमें से ‘फीयर, इंक’ की रिपोर्ट के अनुसार मुख्य कुछ इस तरह से हैं :-
Some of these foundations and wealthy donors also provide direct funding to anti-Islam grassroots groups. According to our extensive analysis, here are the top seven contributors to promoting Islamophobia in our country:
1. Donors Capital Fund.
2 Richard Mellon Scaife foundations.
3. Lynde and Harry Bradley Foundation.
4. Newton D. & Rochelle F. Becker foundations and charitable trust.
5. Russell Berrie Foundation.
6. Anchorage Charitable Fund and William Rosenwald Family Fund.
7. Fairbrook Foundation.
इस कुटिल इस्लामोफोबिया मुहिम को ऑक्सीजन तब मिली जब अमरीका में 9 /11 हमला हुआ, अमरीका सहित यूरोप में मुसलमानों के खिलाफ नफरत और हिंसा का बाज़ार गर्म हो गया, इस ‘इस्लामोफोबिया मुहिम’ के पीछे काम कर रहे लोगों ने इसे खूब भुनाया।
इनकी इस नफरती मुहिम को झटका तब लगा जब 2011 में नॉर्वे में आंद्रे ब्रेविक ने ऐसे ही इस्लामॉफ़ोबिक संगठनों की नफरती मुहीम से प्रेरित होकर 79 बेक़ुसूर लोगों को मौत की घाट उतार दिया था।
अमरीका और यूरोप सहित कई देशों में आंतरिक तौर पर इस तरह के मुस्लिम विरोधी, आब्रजक विरोधी, नस्ली हिंसा फ़ैलाने वाले दक्षिणपंथी संगठनों पर रोक और लगाम लगाने की कोशिशें की जाने लगीं।
अब वापस आते हैं अमरीका और यूरोप में तेज़ी से फैलते इस्लाम और इसकी वजहों के बारे में, 9 /11 हमलों के बाद जब दुनिया भर में मुसलमानो के खिलाफ नफरत का बाज़ार गर्म था, तब वहां के मुसलमानों ने बहुत सब्र और तहम्मुल से काम लिया, ऐसी हज़ारों कहानियां हैं जिसमें मुसलमानो ने उस मुश्किल दौर में इस नफरती लहर से सलीक़े से टक्कर ली।
उन्होंने वहां के लोगों के गुस्से और नाराज़गी को समझा, उनके साथ उस दुःख की घडी में खड़े हुए, नफरत को दरकिनार करते हुए दीन पर क़ायम रहकर उन्हें अम्नो अमान का पाठ पढ़ाया, अपने आमाल से उन्हें दिखाया कि जो इस्लाम की भ्रांतियां वो मुसलमानो के खिलाफ दिमाग में लिए घूम रहे हैं वो सही इस्लाम नहीं है सही इस्लाम हमसे सीखिये।
9 /11 के हमले के बाद भी अमरीका और यूरोप में कई और आतंकी हमले हुए, और वहां के मुसलमान हर बार वहां के लोगों के निशाने पर आये, मगर मुसलमानो ने हार नहीं मानी, वो हर बार इस नफरत की काट करने मिलकर एकजुट होकर हर मुल्क में एक साथ खड़े हुए, अपने खिलाफ लोगों के दिलों से इस्लाम के बारे में गलतफहमियां दूर कीं।
कहीं भी ले लीजिये, चाहे अमरीका हो, ऑस्ट्रेलिया हो, ब्रिटैन हो, स्पेन हो, फ़्रांस हो, जर्मनी हो, कहीं भी इस तरह की इस्लामॉफ़ोबिक लहर उठी है तो वहां के मुसलमानों ने इसे असल इस्लाम से ही ध्वस्त किया है।
ब्रिटैन के मुसलमानो को ही लीजिये, ब्रिटेन में करीब 30 लाख मुसलमान हैं जो देश की कुल जनसंख्या का 5% है, वहां की मुस्लिम कौंसिल ऑफ़ ब्रिटेन ने 2015 में 20 मस्जिदों को लेकर #VisitMyMosque ‘मेरी मस्जिद में तशरीफ़ लाईये’ अभियान शुरू किया था, और तब से ये लगातार जारी है, अब इस अभियान में ब्रिटेन की 200 से ज़्यादा मस्जिदें शामिल हो गयीं हैं।
इस ‘Visit My Mosque’ मुहिम का मक़सद है इस्लामी नज़रिये से ही ‘इस्लामोफोबिया’ की काट, जितनी मस्जिदें हिस्सा लेती हैं उन सब में एक दिन ‘ओपन डे’ रखा जाता है, इस दिन मस्जिदों के दरवाज़े सभी के लिए खुल जाते हैं। मस्जिद में आने वाले लोगों के लिए चाय नाश्ते का इंतेज़ाम रहता है, उन्हें नमाज़ और उसके तरीकों के बारे में बताया जाता है, मस्जिद का दौरा कराया जाता है, साथ ही इस्लाम के लिए उनके दिल में बसी दुर्भावनाओं और भ्रांतियों पर खुलकर चर्चा होती है और उनको दूर किया जाता है।
‘Visit My Mosque’ मुहिम ब्रिटेन में सभी वर्गों का ज़बरदस्त समर्थन मिल रहा है, इससे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि मुसलमान चाहें तो अपने आमाल और नज़रिये से किसी भी गैर मुस्लिम को इस्लाम की सही तस्वीर पेश कर सकता है।
पोस्ट काफी लम्बी हो गयी है, इसका मक़सद या निचोड़ यहाँ आखरी दो पैराग्राफ में सामने रखने की कोशिश करता हूँ, सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाले देशों की सूची में भारत अभी इंडोनेशिया के बाद दूसरे नंबर पर है, अमरीका और यूरोप के मुसलमानो और भारत के मुसलमानो के बीच अगर तुलनात्मक तौर पर देखें तो वहां के मुक़ाबले यहाँ गैर मुस्लिमों द्वारा इस्लाम क़ुबूल करने वालों की तादाद अभी भी उनके मुक़ाबले कुछ भी नहीं है, इसकी वजहों पर ग़ौर कीजिये।
हम पाएंगे कि जहाँ वो लोग गैर मुस्लिमों के लिए मस्जिदों के दरवाज़े खोल रहे हैं, इस्लाम की सही तालीम गैर मुस्लिमों तक पहुंचा रहे हैं, वहीँ भारत के मुसलमान मस्जिदों के दरवाज़े फ़िरक़ों के हिसाब से खोल और बंद कर रहे हैं, मस्जिदों की दीवारों पर बोर्ड लटका रहे हैं कि फलां फ़िरक़े वालों के लिए मस्जिद खुली है, और फलां के लिए बंद है।
सोशल मीडिया को ही लीजिये, यहाँ हम मुसलमानों ने क्या कमी रखी है ? सियासी नज़रिये में फ़र्क़ होते ही एक मुसलमान दूसरे मुसलमान को मुनाफ़िक़, नास्तिक जैसे तमगे दे जाता है, फ़िरक़े बाज़ी, मसलक बाजी मुसलमानो का आम शुगल हो गया है।
जुलाहे, सय्यद, पठान मुद्दों पर ही आपस में एक दूसरे पर थूक रहे हैं और गैर मुस्लिम इस तमाशे को देखकर न सिर्फ हंस रहे हैं बल्कि हमारे कारनामों के ज़रिये पेश किये जा रहे इस्लाम के प्रति अपना नजरिया भी बना रहे हैं, ऐसे में कौन इस्लाम क़ुबूल करेगा ??
मान लीजिए कर भी लिया तो कल को उससे मस्जिद में घुसने से पहले फ़िरक़ा पूछा जायेगा, वो मस्जिदों के दरवाज़ों पर लगे उन नोटिस बोर्ड्स को पढ़कर हैरान रह जायेगा जिसमें फलां फ़िरक़े की एंट्री है और फलां फ़िरक़े की नहीं, यही फ़र्क़ है ‘उन’ मुसलमानों में और ‘हम’ मुसलमानों में।
इस्लाम अपने आप में न सिर्फ एक मज़हब है बल्कि जीवन यापन का मुकम्मल तरीक़ा भी है, इस्लाम को गैर मुस्लिम उनके पहनावे, दाढ़ी, टोपी या बुर्क़े से नहीं समझते बल्कि मुसलमान के आमाल से पहचानते हैं जो कि इस्लाम की रूह ही है।
इस्लाम में अमल को ही अहमियत दी गयी है, अगर आपके पास इल्म है और अमल नहीं तो बेकार है, और दुनिया से इंसान अपने साथ अपने आमाल ही लेकर जाता है, तय कर लीजिये कि हम अपने आमाल से गैर मुसलिमों को कौन सा इस्लाम पेश करना चाहते हैं।
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