रिक्शा, ठेले और बाइक की भीड़ के बीच से अपना रास्ता बनाते हुए, छोटा लड़का जामा मस्जिद के दरीबा कलां से निकला, और मुख्य मस्जिद की ओर जाने वाली सीढ़ियों की ऊंचाइयों पर चढ़ गया।
मस्जिद में दाखिल होने के बाद, बाईं ओर उसका कोना था, वो एकमात्र स्थान जहाँ वह शांति से अध्ययन कर सकता था। भीड़भाड़ पुरानी दिल्ली की शोर भरी शाम उसकी पढाई में खलल डालती थी।
लोगों की समझ में ये बात नहीं आती थी कि उस लड़के में पढ़ने के लिए इतना जूनून क्यों था ? उनके पिता की पुरानी दिल्ली में ताला चाबी की दूकान थी, और पैसा हमेशा उनके लिए फ़िक्र का सबब हुआ करता था।
इसलिए, स्कूल के बाद, उस लड़के ने अपनी स्कूल की फीस देने के लिए एक आभूषण कार्यशाला और कपड़ों की दुकान पर काम किया। जब उसने 1992 में बारहवीं कक्षा डिस्टिंक्शन के साथ पास की, तो किसी को इस बात से कोई मतलब नहीं था, वो लड़का इंजीनियर बनना चाहता था, और इसी जूनून के चलते वो उस लीक से दूर हो गया जिससे उसका परिवार बरसों से चिपका हुआ था।
एक दशक बाद, 2000 के दशक की शुरुआत में, दिल्ली से लगभग 200 किलोमीटर दूर, रामपुर में एक और लड़का अपने घर की छत पर एक खाट पर फैली अपनी किताबें पढ़ रहा था, साथ ही वो रुक-रुक कर पतंग से भरे आसमान को भी देख रहा था। कभी-कभी, जब कोई हवाई जहाज़ ऊपर आसमान से गुजरता तो वो लड़का उसे तब तक देखता रहता था जब तक कि आसमान खाली न हो जाता था। रामपुर की हवा में फुरसत ही ऐसी थी, साथ ही बेफिक्री थी जो कि तहज़ीब के साथ नुमाया होती थी, पतंगबाज़ी और कबूतर बाज़ी ख़ास शौक़ थे।
लेकिन वो लड़का अपने शहर अपने घर के आराम को छोड़ना चाहता था, वो देखना चाहता था कि जो सपने उसने देखे हैं वो क्या वाक़ई में सच हो भी सकते हैं या नहीं ? जब उसने बारहवीं क्लास पास कर आगे एक बड़े शहर में अपनी किस्मत आज़माने की इच्छा जताई, तो उनके घर वालों को फ़िक्र हुई।
उसके वालिद जो कि रामपुर यूपी एसआरटीसी के स्टेशन इंचार्ज थे, का पिछले ही साल इंतेक़ाल हुआ था। उनकी मां, जिन्होंने पहले कभी काम नहीं किया था, को अपने चार बच्चों की परवरिश के लिए नए सिरे से शुरुआत करनी पड़ी। उसकी माँ ने उसे समझाने की कोशिश की। उसने अपनी माँ को समझाया और आखिर एक दिन उसने दिल्ली जाने के लिए अपने घर अपने शहर रामपुर को छोड़ दिया, ये जाने बिना कि कई चीज़ें अब भी उसका पीछा कर रही हैं ।
उधर 1990 के दशक के शुरुआत में, मुंबई में एक युवा लड़की अपने स्कूल की फीस के लिए चुपचाप रुमाल पर कशीदाकारी करते हुए अपनी दादी से कहानियाँ सुन रही थी, उसकी दादी ने उसे बताया, उसे न केवल साक्षर होने की जरूरत है, बल्कि साक्षर शब्द को वास्तव में सार्थक करना है। दादी की कहानियों में एक बात खास हुआ करती थी वो ये कि तालीम ही वो पहली सीढ़ी है जिस पर चढ़कर आप अपने सपने पूरे कर सकते हैं।
अपनी दादी के साये में परवरिश पाती उस लड़की के लिए दसवीं से आगे पढाई का खर्चा निकलना मुमकिन नहीं था। ये कहानियाँ ऐसे लोगों की थीं, जिन्होंने तमाम बाधाओं के बावजूद अपना जूनून बनाये रखा और अपने लक्ष्य हासिल किये।
पुराणी दिल्ली का वो लड़का नवेद इक़बाल जो मस्जिद के कोने में पढाई किया करता था अब 44 साल का है, और जनरल इलेक्ट्रिक (GE) ऑयल एंड गैस, भारत में Director of Operations है, ये पोस्ट CEO के बाद दूसरे स्थान पर है।
आज, नवेद टोयोटा कोरोला का मालिक है, उसके पास केंद्रीय दिल्ली में तीन बेडरूम का अपार्टमेंट है, और उनकी बेटी दिल्ली के सबसे अच्छे स्कूलों में से एक में पढ़ती है, तालीम न सिर्फ आपके सपने पूरे करती है बल्कि आपके लिए तरक़्क़ी और बेहतर ज़िन्दगी के दरवाज़े भी खोलती है।
रामपुर का वो आसमान को निहारता लड़का मुख्तार खान अब 33 वर्ष का है, और एयर इंडिया के वरिष्ठ केबिन क्रू का हिस्सा है। उनसे उम्मीद की जा रही है कि वह जल्द ही एक कमर्शियल पायलट बन जाएंगे।
अमेरिका में एक उड़ान स्कूल से परीक्षा पास होने के बाद, और अमेरिका और कनाडा दोनों में उड़ान भरने के लिए लाइसेंस प्राप्त करने के बाद, मुख्तार अब नागरिक उड्डयन महानिदेशालय से अपने वाणिज्यिक लाइसेंस जारी करने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
मुख्तार के पास उनकी पत्नी और दोनों के पास ग्रेटर नोएडा में एक घर है। वह अब तक 17 देशों की यात्रा कर चुके हैं।
अपनी स्कूल फीस के लिए रूमाल पर कशीदाकारी करते हुए दादी से कहानियां सुनने वाली मुंबई की बुशरा शाद अब 39 साल की हैं, और मुंबई में एक कॉर्पोरेट वकील हैं और मुंबई की ही एक लॉ फर्म लॉकेट पार्टनर्स में पार्टनर हैं।
बुशरा को अपनी दादी से एक अपार्टमेंट विरासत में मिला है, लेकिन उनके पास खुद की कार नहीं है, क्योंकि उन्हें इसकी ज़रूरत महसूस नहीं होती है।
उमीदों, सपनो और जूनून की ये कहानियां बताती हैं कि अनपढ़ मुस्लिम समुदाय के ठप्पे को तोड़ते हुए, नावेद, मुख्तार और बुशरा जैसे लोगों ने तालीम के दम पर देश भर में एक छोटा, मगर उभरता हुआ मुस्लिम मध्यम वर्ग बनाया है।
और इन्होने या इन जैसे कई मुस्लिम नौजवानों ने ये बुलंदियां मुल्क में मुसलमानों के साथ विभिन्न स्तरों पर की गयी सियासी अनदेखी, भेदभाव, असंतोष और गरीबी के बावजूद हासिल की हैं, और इस माध्यम वर्ग का ये उभार लगातार जारी है।
NFHS के अनुसार, 2016 में समाप्त होने वाले दशक में कम से कम बारहवीं कक्षा तक पढ़ने वाले मुस्लिम पुरुषों की हिस्सेदारी दोगुनी हो गई। मुस्लिम महिलाओं की शैक्षिक स्थिति में पुरुषों की तुलना में बहुत तेजी से सुधार हुआ है, हालांकि बारहवीं कक्षा तक पाने वाली महिलाओं की हिस्सेदारी अभी भी 15% से थोड़ा कम है। स्कूली शिक्षा से परे शैक्षिक उपलब्धियों में सुधार धीमा रहा है। जनगणना के अनुसार, केवल 5% से अधिक मुसलमान (पुरुष और महिला) स्नातक हैं।
ये कुछ कहानियां बताती हैं कि धीमा है मगर बदलाव आ रहा है, और ये बदलाव कड़ी मेहनत, तालीम और जद्दोजहद कर अपने लिए रास्ता बनाने के जूनून की वजह से मुमकिन हो पा रहा है।
यह नया मुस्लिम वर्ग नवेद, मुख्तार और बुशरा जैसे लोगों से बना है, जो मुस्लिम बहुल शहरी केंद्रों से नहीं आते हैं, लेकिन दिल्ली के जाकिर नगर या शाहीन कहे जाने वाले मेट्रो शहरों में निम्न मध्यम वर्गीय मुस्लिम इलाकों के हैं।
पिछले दो दशकों से राजनीतिक दलों द्वारा मुसलमानों के साथ की गयी अनदेखी की वजह से हुए अलगाव और मोहभंग की भावना के चलते मुसलमानों को खासकर निम्न माध्यम वर्गीय मुस्लिम युवा वर्ग को भी एहसास हुआ, जैसा कि बुशरा के साथ हुआ था, कि तालीम ही क़ौम को आगे बढ़ने और मुल्क की मुख्यधारा में शामिल होने का वाहिद जरिया है।
इसी के चलते भले ही 1990 के मध्य में मुस्लिम समुदाय ने तालीम की अहमियत को समझा और महसूस किया, जैसा कि दिल्ली स्थित एक थिंक टैंक, पॉलिसी प्रॉस्पेक्टिव फाउंडेशन के वरिष्ठ साथी अनवर आलम सहित कई शोधकर्ताओं ने रिपोर्ट में बताया है, इसके साथ ही कुछ ने आधुनिक शिक्षा को चुना, जिसका मतलब था कि अधिक से अधिक मदरसों को अपने पाठ्यक्रम में अंग्रेजी और कंप्यूटर ट्रेनिंग को शामिल करना।
सियासी दलों की अनदेखी, भेदभाव, मुस्लिम विरोधी माहौल के कारन सभी नवेद अभी अपनी लड़ाई नहीं जीते हैं, अभी भी अनगिनत मुख्तार हैं जो आसमान उड़ते हुए हवाई जहाज़ को देखते हुए सपने बुनते हैं, अभी भी कई बुशरायें हैं जो अपने स्कूल की फीस के लिए रुमाल में कशीदाकारी करते हुए दादी से कहानियां सुनते हुए सपने बुनती होंगी, इनके लिए भी सपने पूरे करना इतना आसान नहीं है, मगर फिर भी इसी माध्यम वर्गीय और निम्न माध्यम वर्गीय युवा वर्ग ने ठान लिया है कि भीड़ को चीर कर, हर अनदेखी, हर भेदभाव, हर मुश्किल को पार कर अपने मक़सद तक पहुंचना ही है।
और ये वर्ग इस बात को अच्छी तरह से जान गया है कि इसके लिए तालीम पहली शर्त है, किसी भी क़ीमत पर इसे हासिल करना है, और इसके लिए इस वर्ग में एक जूनून देखने को मिलता है, हर मदरसे में, हर स्कूल में कॉलेजेज में, कोचिंग सेंटर्स में, हर कहीं आपको मुस्लिम बच्चे बच्चियों और नौजवानों की अच्छी खासी तादाद नज़र आएगी, ये सभी कल के नवेद इक़बाल है, कल के मुख़्तार है और कल कि बुशरा हैं।
(Live Mint में प्रकाशित अशवाक़ मसूदी के लेख से साभार)
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