भारत का तो मुझे ज़्यादा मालूम नहीं, लेकिन पाकिस्तान में मुर्गी का गोश्त बेचने वाले हर कसाई की दुकान पर एक बड़ा सा लोहे का पिंजड़ा पड़ा रहता है, ये पिंजड़ा इतना भारी होता है कि चुराना भी मुश्किल होता है।
सुबह-सुबह मुर्गियों से भरा एक ट्रक आता है और खाली पिंजड़ा ऊपर तक भर जाता है. और फिर कसाई का हाथ इस पिंजड़े में आता है जाता है, जाता है आता है।
वो अपनी मर्ज़ी की मुर्गी नंगे हाथ से पकड़कर बाहर निकालता है।
एक भी मुर्गी उसके हाथ पर चोंच नहीं मारती, बस डरकर सहम जाती हैं और फिर शायद ये सोचकर नॉर्मल हो जाती है कि हो सकता है हमारी बारी न आए।
लेकिन फिर हर शाम को पिंजड़ा खाली होता और सुबह फिर भर जाता है।
कुछ लोग बंदी बनने के बावजूद भी विरोध करना पसंद नहीं करते, बल्कि कई को तो बंदी बनाने वाले से प्यार हो जाता है।
पढ़े-लिखे लोग इसे स्टॉकहोम सिंड्रोम कहते हैं. पर मुझे लगता है कि ये सिंड्रोम सबसे ज़्यादा हमारे देशों में ही पाया जाता है।
(वुसतुल्लाह खान साहब के ब्लॉग से)
अब आगे जानिये इस ‘स्टॉकहोम सिंड्रोम’ के बारे में।
‘स्टॉकहोम सिंड्रोम’ नाम मिला था 23 अगस्त 1973 की एक घटना की वजह से।
23 अगस्त 1973 में यान-एरिक ऑल्सन ने स्टॉकहोम की एक बैंक क्रेडिटबैंकन के चार कर्मचारियों को बंधक बना लिया था। पांच दिन का बंधक संकट टेलीविजन पर लाइव प्रसारित हुआ, पूरा राष्ट्र सांस रोके देखता रहा, किसी पॉपुलर टीवी शो की तरह. यह और नाटकीय मोड़ पर पहुंच गया, जब ओलसन ने पुलिस के सामने मांग रख दी कि उनके साथी बैंक लुटेरे क्लार्क ओलोफसन को जेल से निकाल कर बैंक लाया जाए।
थोड़ी देर बाद यह डर किसी और दिशा में जाने लगा जब एक बंधक का टेलीफोन इंटरव्यू प्रसारित किया गया, तो स्वीडिश जनता एक जटिल मनोवैज्ञानिक दोराहे पर पहुंच गई। क्रिस्टिन एनमार्क नाम की बंधक ने कहा, “मैं क्लार्क और दूसरे शख्स से रत्ती भर भयभीत नहीं हूं, मैं तो पुलिस से डर रही हूं, आपको यकीन हो न हो, हमें यहां मजा आ रहा है।” बाद में ओलसन और ओलोफसन दोनों ने समर्पण कर दिया, पर कहानी खत्म नहीं हुई।
इस घटना के बाद बंधक और अपहर्ता के रिश्ते को बिलकुल नए अंदाज में देखा गया. ये सिंड्रोम अमेरिका के मोनोवैज्ञनिकों और विज्ञानं को परेशान करता रहा. अमेरिकी जांच एजेंसी एफबीआई के मुताबिक करीब 27 फीसदी बंधकों को अपने अपहर्ताओं के प्रति सहानुभूति होती है।
बंधकों को बैंक की तिजोरी में 5 दिनों (अगस्त 23-28) तक कैद के बाद रिहा किया गया तो उनमें से किसी ने भी अदालत में बंदी बनाने वालों के खिलाफ गवाही नहीं दी, बल्कि उलटे डकैतों से उनको बड़ी सहानुभूति हो गई थी. इतनी कि एक स्टाफ ने तो एक डकैत से सगाई कर ली, एक दूसरे स्टाफ ने चंदा लगाकर फंड बनवाया. ताकि डकैतों का केस लड़ा जा सके, बाद में वे उन्हे मिलने जेल भी जाते रहे।
बाद में एक स्वीडिश अपराधविज्ञानी और मनोचिकित्सक नील्स बेजेरो ने इसे ‘स्टॉकहोम सिंड्रोम’ नाम दिया, जिसमें लोग अपने उत्पीड़कों के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ जाते हैं। इसके लक्षण किडनैपिंग के अलावा दूसरी बातों में भी देखे जाते हैं. जैसे इंजीनियरिंग के छात्रों में. जब आप पूछेंगे कि रैगिंग कैसी लगती थी ? तो बोलेंगे कि सर, बड़ा मजा आता है, सीनियर लोगों ने जिंदगी जीना सिखा दिया। जबकि सच्चाई ये थी कि उनको कई बार नंगा कर पीटा भी जाता था।
फिर ये लक्षण रिश्तों में भी देखे जाते हैं, कई जगह हम लोग ये देखते हैं कि पति-पत्नी में मार मची हुई है, हम सोचते हैं कि ये लोग एक-दूसरे से अलग क्यों नहीं हो जाते. क्योंकि कुछ भी जाए, दोनों साथ ही रहते हैं।
इस सिंड्रोम के चलते लोगों को अपने abusers (कष्ट देने वाले) से ही लगाव हो जाता है, यह एक सुनियोजित मनोवैज्ञानिक ब्रेन वाशिंग रणनीति भी कही जाती है।
और यही लक्षण अब राजनीति में भी परिलिक्षित होते नज़र आने लगे हैं, कभी गैस तो कभी पेट्रोल तो कभी डीज़ल की कीमतें बढ़ती हैं, कभी टैक्स बढ़ता है, तो कभी रेल किराए बढ़ते हैं लोग महंगाई, भुखमरी, नोटबंदी, बेरोज़गारी, साम्प्रदायिकता, किसानों की आत्म हत्याएं और बढ़ती असहिष्णुता और सरकार की वायदा खिलाफी के कष्ट उठाने के बावजूद लोग सरकार या नेता के गुण गाते नज़र आते हैं।
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