10 साल बाद जेल से बेगुनाह साबित हुए 9 लोगों की कहानी :

8 सितंबर 2006 को नासिक जिले के मुस्लिम बहुल इलाक़े मालेगांव के बड़ा कब्रिस्तान, मुशावरत चौक और हमीदिया मस्जिद के पास हुए तीन बम विस्फोट में 37 लोग लोगों की मौत हुई थी और 130 घायल हुए थे। तब इस मामले में तुरत फुरत 13 लोगों को आरोपी बनाया गया और 9 लोगों को गिरफ्तार किया गया था और गिरफ्तार सभी लोगों को सिमी का कार्यकर्ता बताया गया था।

सितंबर 2006 को हुए मालेगांव बम धमाकों के सभी 9 आरोपियों को 10 साल बाद, अप्रैल 2016 को बरी कर दिया गया। बरी होने वालों में सलमान फारसी, शबीर अहमद, नुरुलहुदा दोहा, रईस अहमद, मोहम्मद अली, आसिफ खान, जावेद शेख, फारूक अंसारी और अबरार अहमद के नाम हैं। इन सभी पर आरोप था कि ये ब्लास्ट में शामिल थे। शब्बीर 2015 में दुर्घटना में मारा गया था।

एनआईए ने मकोका कोर्ट में कहा था कि उसके पास इन नौ लोगों के खिलाफ कोई सबूत नहीं है। हालांकि पिछले दिनों एनआईए ने अपने रूख में बदलाव किया था और आरोपों से बरी करने का विरोध किया था। बरी किए लोग धमाकों के आरोप में पांच साल तक जेल में रहे थे। 2011 में इन्हें जमानत दी गई थी। मालेगांव धमाकों की जांच शुरू में महाराष्ट्र एटीएस कर रही थी। महाराष्ट्र एटीएस ने ही इन नौ लोगों को पकड़ा था।

तब एटीएस ने कहा था कि ये लोग सिमी (स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया) से जुड़े हुए थे। इन्होंने लश्कर ए तैयबा की मदद से धमाकों को अंजाम दिया गया। मगर इसके बाद 2008 में हुए धमाके के मामले में एटीएस की जांच में अभिनव भारत संस्था का नाम सामने आया था। इस मामले में स्वामी असीमानंद, कर्नल पुरोहित सहित साध्वी प्रज्ञा सिंह को गिरफ्तार किया गया था। इस मामले की जांच अभी भी जारी है।

तब असीमानंद ने अपने इकबालिया बयान में सुनील जोशी का नाम लिया थ, कहा जाता है कि सुनील जोशी ने इस हमले के बारे में कहा था कि उनके लड़कों ने यह काम किया था। बाद में सुनील जोशी की हत्या हो गई थी। पुलिस उन्हें गिरफ्तार नहीं कर पाई थी। असीमानंद के बयान पर आगे बढ़ी एनआईए उसके बाद मामले में नया मोड़ तब आया जब असीमानन्द के बयान के बाद राष्ट्रिय जांच एजेंसी ने 4 दूसरे लोगों को मामले में आरोपी बनाया और उनके खिलाफ 25 मई 2013 को एनआईए के स्पेशल कोर्ट में आरोप पत्र दायर किया। तब से मामला उलझा हुआ है।

यहाँ सबसे बड़ा सवाल कि इन 9 बेगुनाह मुसलमानों की ज़िन्दगी के क़ीमती 10 साल ख़राब करने इनके सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक नुकसान की भरपाई का ज़िम्मेदार कौन है ? क्यों हर बार हर सरकार हर जाँच एजेंसी कभी भी किसी भी मुसलमान को पहले उठाती है बाद में उसपर आरोप फ्रेम किये जाते हैं मगर सबूत नहीं मिल पाते और बेगुनाह अपनी ज़िन्दगी के 10 – 15 -20 साल ख़राब कर बा इज़्ज़त (?) बरी होता है ?

जब कोई वारदात होती है तो पुलिस पर दबाव होता है और उस दबाव को कम करने के लिए वह गर्दन के नाप का फंदा तलाशती है। फिर कोई मुस्लिम उठाया जाता है, या नौजवान उठाये जाते हैं, इनके सम्बन्ध ना ना प्रकार के मुस्लिम नामी आतंकी संगठनों से जोड़े जाते हैं, मीडिया अदालत से पहले ही इन्हे आतंकी पुकारने लगती है, पूरे देश में इस प्रोपेगण्डे को सच मानकर नेरेटिव सेट हो जाता है।

इतना ही नहीं, कई तो बार काउंसिलें प्रस्ताव पारित कर केस लडऩे से इनकार कर देती हैं, सामाजिक बहिष्कार हो जाता ह। पुलिस के निकम्मेपन और कथित सभ्य समाज का जुल्म एक मासूम का जीवन बरबाद कर देता है.’’ कई बार संदिग्धों का केस लडऩे वाले वकीलों को धमकी मिलती है।

मुंबई के वकील शाहिद आजमी की हत्या इसकी मिसाल है। दिल्ली में आतंक के फर्जी मामले में जेल की सजा काट चुके शाहिद ने मुंबई में बेगुनाहों की पैरवी का प्रण किया था। हाल ही में वरिष्ठ वकील महमूद प्राचा को धमकी मिल चुकी है, जो इज्राएली दूतावास के सामने हुए कार धमाके समेत दर्जनों आतंक से जुड़े मामलों की पैरवी कर रहे हैं। मदनी की भी मांग है कि ‘‘ जब कोई पुलिस अधिकारी किसी को पकड़ता है तो जिस तरह उसे शाबासी मिलती है, उसी तरह अगर कोई निर्दोष जेल में गलत सजा काटता है तो उसकी जवाबदेही भी तय होनी चाहिए क्योंकि पुलिस के निकम्मेपन की वजह से गलत व्यक्ति जेल में पिसता है और असली मुजरिम बच निकलता है।’

आगे जारी है ……….. भाग 2.

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