दुनिया को शांति का नोबल पुरस्कार देने वाले देश नॉर्वे खुद एक शांतिप्रिय देश है, यहाँ आपराधिक घटनाएं भी बहुत कम होती हैं, 2015 में नॉर्वे में जारी हुए एक सरकारी आंकड़ों में बताया गया था कि 2014 में नॉर्वे पुलिस ने केवल दो फायर किये थे और उसमें भी कोई घायल नहीं हुआ था।

आज उसी देश को एक बार फिर से दक्षिणपंथ की नज़र लग गई, नॉर्वे में कई दशकों से नव नाज़ी संगठनों और दक्षिणपंथी संगठनों की गतिविधियां जारी हैं, छुट पुट हमले और ब्लास्ट आदि होते रहे हैं, अगर आतंकवाद या इस्लामी आतंकवाद को मद्दे नज़र रखते हुए नॉर्वे के संक्षिप्त इतिहास (1965 से लेकर 2019 तक) पर नज़र डालें तो वहां 99 % फ़ीसदी घटनाएं नव नाज़ी संगठनों और श्वेत दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा ही की गयीं हैं।

मगर अमरीका में हुए 9/11 हमले के बाद उस देश में इस्लामोफोबिया पांव पसारने लगा, और वहां के नव नाज़ी और दक्षिणपंथ संगठन एकजुट होकर मुस्लिम विरोधी एजेंडे पर काम करने लगे और इसका गंभीर परिणाम निकला नॉर्वे के Utøya में हुआ सदी का सबसे बड़ा आतंकी हमला जिसे एक इस्लामॉफ़ोबिक दक्षिणपंथी ने ही अंजाम दिया था।

वो सबसे बड़ी आतंकी घटना 22 जुलाई 2011 को हुई थी जिसमें मुस्लिम विरोधी दक्षिणपंथी संगठन से प्रेरित होकर आंद्रे ब्रेविक ने बेगुनाह नागरिकों पर अंधाधुंध फायरिंग कर 77 लोगों को मौत की घाट उतार दिया था और इस घटना में 320 लोग गंभीर घायल हुए थे। ये वही आंद्रे ब्रेविक है जो भारत के हिन्दू दक्षिणपंथी संगठनों की विचारधारा से प्रेरित था और उसने अपने मेनिफेस्टो का LOGO भी बनारस से ही ऑनलाइन बनवाया था।

अमरीका में हुए 9/11 हमले के बाद दुनिया में नव नाज़ी और दक्षिणपंथी संगठनों तथा उनके नेताओं की चांदी हो गई, साथ ही दक्षिणपंथी विचारधारा के राजनैतिक दलों और नेताओं को एक हथियार मिल गया, Islamophobia अब करोडो डॉलर का उद्योग बन गया, कई देशों में मुस्लिम विरोध और मुस्लिम नफरत के दम पर सत्ताएं हासिल होने लगीं।

अब जब दुनिया के मुसलमान इस्लामोफोबिया को मात देने और कई प्रायोजित कथित आतंकी इस्लामी संगठनों के खिलाफ खड़े होने लगे तो इन नव नाज़ी और दक्षिणपंथी संगठनों को अपने नफरत के दम पर फल फूल रहे धंधे के चौपट होने का डर सताने लगा, इसका तोड़ इन्होने ये निकाला कि मुसलमानों को उकसाया जाए चाहे इसके लिए मस्जिदों पर हमले कर नमाज़ियों को क़त्ल करना हो चाहे क़ुरआने पाक को जलाना हो।

ये वही नॉर्वे है जहाँ 10 अगस्त 2019 को ओस्लो की अल नूर मस्जिद में न्यूज़ीलैंड जैसा आतंकी हमला कर नमाज़ियों को मारने के लिए एक दक्षिणपंथी फिलिप मंशाउज ने हथियार लेकर हमला किया था, मगर एक पाकिस्तानी की हिम्मत और बहादुरी से वो पकड़ा गया था।

ये वही नॉर्वे है जहाँ पिछले हफ्ते दक्षिणपंथी संगठन SIAN (Stop the Islamisation of Norway) के ग्रुप लीडर लार्स थोर्सन क़ुरआन की एक प्रति जलाने की कोशिश की थी, और एक युवक ने प्रतिक्रिया स्वरुप उसकी हरकत के विरोध में बेरिकेड कूद कर उसपर हमला कर दिया था।

ये सभी घटनाएं ये साबित करती हैं कि दुनिया के नव नाज़ी संगठन, दक्षिणपंथी संगठन, दक्षिणपंथी सरकारें और उसके नेता ये नहीं चाहते की दुनिया में इस्लामोफोबिया ख़त्म हो, अगर उन्हें ये लगता है कि दुनिया से मुसलमानों के खिलाफ नफरत और विरोध ख़म हो रहा है तो वो मुसलामानों को उकसाने और भड़काने के लिए इसी तरह के हथकंडे अपनाने लगते हैं ताकि इसकी प्रतिक्रिया में कोई भी कथित या इनके द्वारा प्रायोजित या पाला हुआ ‘आतंकी इस्लामी संगठन’ हमला करे और वो चिल्ला चिल्ला कर दुनिया को बताएं कि देखो मुसलमान कितने खतरनाक हैं।

नार्वे को इस्लामोफोबिया से उतना खतरा नहीं है जितना इन नव नाज़ी और दक्षिणपंथी संगठनों से है, आंद्रे ब्रेविक इसकी बड़ी मिसाल है, नॉर्वे को यदि अपने देश में शांति रखना है तो उसे उन सभी नव नाज़ी और दक्षिणपंथी संगठनों और उसके लोगों पर ठीक उसी तरह नकेल कसनी होगी जैसे कि न्यूज़ीलैंड में वहां की प्रधानमंत्री जेसिंडा अर्डर्न ने वहां मस्जिदों पर हुए आतंकी हमलों के बाद कड़ी कार्रवाही कर दुनिया की वाह वाही लूटी है और अपने देश में शांति स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।

मुस्लिम विरोध और नफरत में अंधे हो रही दुनिया को ये बात शायद देर से समझ आये कि दुनिया के लिए आगामी संकट इस्लामी आतंकवाद नहीं बल्कि दक्षिणपंथी आतंकवाद है, ये दुनिया के लिए बड़ी खतरे की घंटी है इसकी मिसालें कई देशों में हुए मुस्लिम विरोधी और नस्लभेदी हमले हैं और ये दक्षिणपंथी आतंकवाद इस्लामोफोबिया को ढाल बनाकर अपने एजेंडे पूरे कर रहा है।

नार्वे में 22 जुलाई 2011 को हुआ नरसंहार और न्यूज़ीलैंड की मस्जिदों में हुआ आतंकी हमला और 50 लोगों की मौत इसका बड़ा सबूत हैं।

इस मामले में अपडेट ये है कि नार्वे सरकार ने देश में इस तरह के किसी भी धर्म विरोधी प्रदर्शन पर रोक लगा दी है, सूत्रों का कहना है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर धार्मिक आस्था को चोट नहीं पहुंचाने दी जा सकती है।

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