कांग्रेस ने मंगलवार को जारी किए गए अपने घोषणापत्र में यह वादा किया है कि आगामी लोकसभा चुनाव के बाद उसकी सरकार बनती है तो वह देशद्रोह की धारा 124ए को समाप्त कर देगी। इसी घोषणा के साथ इस पर राजनीति शुरू हो गयी है।

सेडिशन लॉ या देशद्रोह क़ानून एक औपनिवेशिक क़ानून है जो ब्रिटिश राज के समय बना था, सन 1837 में लॉर्ड टीबी मैकॉले की अध्यक्षता वाले पहले विधि आयोग ने भारतीय दंड संहिता तैयार की थी. सन 1870 में ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने सेक्शन 124-A को आईपीसी के छठे अध्याय में जोड़ा।

19वीं और 20वीं सदी के प्रारम्भ में इसका इस्तेमाल ज्यादातर प्रमुख भारतीय राष्ट्रवादियों और स्वतंत्रता सेनानियों के लेखन और भाषणों के खिलाफ हुआ। 1870 में बने इस कानून का इस्तेमाल ब्रितानी सरकार ने महात्मा गांधी और बालगंगाधर तिलक के खिलाफ किया था।

पहला मामला 1891 में अखबार निकालने वाले संपादक जोगेन्द्र चंद्र बोस का सामने आता है. बाल गंगाधर तिलक से लेकर महात्मा गांधी तक पर इस सेक्शन के अंतर्गत ट्रायल चले, पत्रिका में छपे अपने तीन लेखों के मामले में ट्रायल झेल रहे महात्मा गांधी ने कहा था, “सेक्शन 124-A, जिसके अंतर्गत मुझ पर आरोप लगा है, आईपीसी के राजनीतिक वर्गों के बीच नागरिकों की स्वतंत्रता को दबाने के लिए रचे गए कानूनों का राजकुमार है।”

भारतीय कानून संहिता (IPC) की धारा 124-ए में देशद्रोह की दी हुई परिभाषा के मुताबिक, अगर कोई भी व्यक्ति सरकार-विरोधी सामग्री लिखता है या बोलता है या फिर ऐसी सामग्री का समर्थन करता है, या राष्ट्रीय चिन्हों का अपमान करने के साथ संविधान को नीचा दिखाने की कोशिश करता है, तो उसे आजीवन कारावास या तीन साल की सजा हो सकती है।

ब्रिटिश औपनिवेशिक काल की सरकार ने 19वीं और 20वीं सदी में राष्ट्रवादी असंतोष को दबाने के लिए यह कानून बनाए थे, खुद ब्रिटेन अपने देश में राजद्रोह कानून को 2010 में ही समाप्त कर चुका है। हैरानी की बात ये है कि जबकि आज से 9 साल पहले ही ब्रिटेन ने ये कानून अपने संविधान से हटा दिया है, लेकिन भारत के संविधान में ये विवादित कानून आज भी मौजूद है।

इसके साथ राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून (NSA) को 1980 में लाया गया था, यह केंद्र और राज्य सरकारों को ऐसी शक्तियां देता है जिसके तहत राष्ट्र हित में किसी भी शख़्स को बिना सूचना हिरासत में लिया जा सकता है, इस क़ानून में बिना ट्रायल के किसी शख़्स को एक साल तक हिरासत में रखा जा सकता है।

हाल ही में मणिपुर के टीवी पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेम को एनएसए के तहत गिरफ़्तार किया गया था। हाल ही में मणिपुर के टीवी पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेम को एनएसए के तहत गिरफ़्तार किया गया था, उन पर आरोप थे कि उन्होंने मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह की आलोचना का एक वीडियो फ़ेसबुक पर पोस्ट किया था।

1. 1870 में बने इस कानून का इस्तेमाल ब्रिटिश सरकार ने महात्मा गांधी के खिलाफ वीकली जनरल में ‘यंग इंडिया’ नाम से आर्टिकल लिखे जाने की वजह से किया था. यह लेख ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लिखा गया था।

2. बिहार के रहने वाले केदारनाथ सिंह पर 1962 में राज्‍य सरकार ने एक भाषण के मामले में देशद्रोह के मामले में केस दर्ज किया था, जिस पर हाई कोर्ट ने रोक लगा दी थी. केदारनाथ सिंह के केस पर सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की एक बेंच ने भी आदेश दिया था. इस आदेश में कहा गया था, ‘देशद्रोही भाषणों और अभिव्‍यक्ति को सिर्फ तभी दंडित किया जा सकता है, जब उसकी वजह से किसी तरह की हिंसा, असंतोष या फिर सामाजिक असंतुष्टिकरण बढ़े।”

3. 2010 को बिनायक सेन पर नक्‍सल विचारधारा फैलाने का आरोप लगाते हुए उन पर इस केस के तहत मुकदमा दर्ज किया गया. बिनायक के अलावा नारायण सान्‍याल और कोलकाता के बिजनेसमैन पीयूष गुहा को भी देशद्रोह का दोषी पाया गया था. इन्‍हें उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी लेकिन बिनायक सेन को 16 अप्रैल 2011 को सुप्रीम कोर्ट की ओर से जमानत मिल गई थी।

4. 2012 में काटूर्निस्‍ट असीम त्रिवेदी को उनकी साइट पर संविधान से जुड़ी भद्दी और गंदी तस्‍वीरें पोस्‍ट करने की वजह से इस कानून के तहत गिरफ्तार किया गया. यह कार्टून उन्‍होंने मुंबई में 2011 में भ्रष्‍टाचार के खिलाफ चलाए गए एक आंदोलन के समय बनाए थे।

5. 2012 में तमिलनाडु सरकार ने कुडनकुलम परमाणु प्‍लांट का विरोध करने वाले 7 हजार ग्रामीणों पर देशद्रोह की धाराएं लगाईं थी।

6. 2015 में हार्दिक पटेल कन्‍हैया कुमार से पहले गुजरात में पाटीदारों के लिए आरक्षण की मांग करने वाले हार्दिक पटेल को गुजरात पुलिस की ओर से देशद्रोह के मामले तहत गिरफ्तार किया गया था।


देशद्रोह के कानून को लेकर संविधान में विरोधाभास भी है, जिसे लेकर अक्सर विवाद उठते रहे हैं। दरअसल, जिस संविधान ने देशद्रोह को कानून बनाया है, उसी संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भारत के नागरिकों का मौलिक अधिकार बताया गया है। मानवाधिकार और सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ता इसी तर्क के साथ अपना विरोध जताते रहे हैं और आलोचनाएं करते रहे हैं।

सन 1947 में ब्रिटिश शासन से आजादी मिलने के बाद से ही मानव अधिकार संगठन आवाजें उठाते रहे हैं कि इस कानून का गलत इस्तेमाल अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ किए जाने का खतरा है. सत्ताधारी सरकार की शांतिपूर्ण आलोचना को रोकना देश में भाषा की स्वतंत्रता को ठेस पहुंचा सकता है।

सन 1962 के एक उल्लेखनीय ‘केदार नाथ सिंह बनाम बिहार सरकार’ मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कानून की संवैधानिकता को बरकरार रखने का निर्णय लिया था. हालांकि अदालत ने ऐसे भाषणों या लेखनों के बीच साफ अंतर किया था जो “लोगों को हिंसा करने के लिए उकसाने वाले या सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने की प्रवृत्ति वाले हों।”

इसके अलावा आर्म्ड फॉर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट यानी (AFSPA) क़ानून सेना और अर्धसैनिक बलों को ऐसी शक्तियां देता है जिसके तहत वह किसी को भी हिरासत में ले सकते हैं और हथियारों का इस्तेमाल कर सकता है. इसके लिए वह किसी क्रिमिनल कोर्ट में जवाबदेह भी नहीं होंगे।

आफ़्सपा किसी इलाक़े में लागू करने के लिए उसका अशांत घोषित होना ज़रूरी है, जम्मू-कश्मीर समेत यह क़ानून पूर्वोत्तर राज्यों के कई इलाक़ों में लागू है, 2015 में त्रिपुरा से यह क़ानून हटा दिया गया था।

स्त्रोत : –
BBC हिंदी
आजतक
दैनिक भास्कर
DW

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