नूज़ीलैण्ड की मस्जिद में हुए आतंकी हमले में मारे गए 49 लोगों को लेकर विश्व में सोशल मीडिया पर कई तरह की बहस देखने को मिल रही है, भारत में भी (जहाँ पिछले माह ही पाक आतंकी संगठन जैश के आतंकी हमले में हमारे 42 जवान शहीद हुए हैं) लोग सोशल मीडिया पर अपनी अपनी प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं, अधिकांश जनता इस हमले से दुखी है और इसे अमानवीय मान रही है, मगर एक गिरोह ऐसा भी है जो नूज़ीलैण्ड में मारे जाने वाले 49 लोगों की मौत पर जश्न मना रहा है, सिर्फ इसलिए कि मारे जाने वाले सभी मुस्लिम हैं।

ये मानसिकता भी केवल मुस्लिम विरोधी या कह सकते हैं कि इस्लामोफोबिया ही है जिसे लोगों में मन मस्तिष्क में इंजेक्ट करने में देश के दक्षिणपंथी संगठनों ने दशकों कड़ी मेहनत की है, और उस मेहनत का फल देश में पिछले पांच सालों में देखने को भी मिला है। दक्षिणपंथ ने देश में बहुत सारे ‘इस्लामॉफ़ोबिक आतंकी’ तैयार कर लिए हैं।

भारत दशकों से पाक प्रायोजित आतंकवाद से प्रभावित रहा है, और इसी कारण हर साल सैंकड़ों जवान, अफसर, नागरिक इस आतंकवाद की भेंट चढ़ते हैं। पाक के कट्टरपंथियों, सेना और सरकार से अभयदान प्राप्त ये और ऐसे कई और आतंकी संगठन दशकों से अपने क्रूर एजेंडों पर काम कर रहे हैं। और यही वजह है कि कई बार पाक भी इसी आतंकवाद का खुद भी शिकार हुआ है, 2014 में पेशावर के आर्मी स्कूल पर आतंकी हमला हुआ था, जिसमें 132 बच्चों सहित 149 लोग मारे गए थे, बेनज़ीर भुट्टो ऐसे ही आतंकी हमले में मारी गयीं थी।

इसी पाक प्रायोजित आतंकवाद को ढाल बनाकर भारत के दक्षिणपंथी संगठनों ने घर वापसी, लव जिहाद, गौरक्षा को ढाल बनाकर मुसलमानों के खिलाफ ज़बरदस्त दुष्प्रचार किया, कहिये कि इस्लामोफोबिया को इंजेक्ट किया, इसका नतीजा ये निकला कि केवल गौरक्षक गुंडों ने ही भाजपा सरकार में 26 मुसलमानों को क़त्ल कर डाला, और इसका घृणित रूप देखने को मिला शंभूलाल रैगर द्वारा एक मुस्लिम मज़दूर को लाइव हत्या कर जलाएं जाने की घटना में।

शंभूलाल रैगर भी दक्षिणपंथी दुष्प्रचार ‘लव जिहाद’ का मोहरा बन गया था, शंभूलाल रैगर की मानसिकता में और नूज़ीलैण्ड गोलाबारी के आरोपी ब्रेंटन टैरंट या कसाब या फिर नार्वे के आंद्रे ब्रेविक या फिर जैश के आतंकियों की मानसिकता में कोई फ़र्क़ नहीं है, और दूसरी बात कि शंभूलाल रैगर के कारनामों की प्रशंसा करने वालों या फिर नूज़ीलैण्ड में हुए नरसंहार का जश्न मानाने वालों में और ब्रेंटन टैरंट या कसाब या फिर नार्वे के आंद्रे ब्रेविक या फिर जैश के आतंकियों की मानसिकता में कोई फ़र्क़ नहीं है।

यही लोग गाँधी जयंती पर बापू के पुतले को प्रतीकात्मक रूप से गोली मारते हैं, या गोली मारने वालों को प्रोत्साहित करते हैं, यही लोग शंभूलाल रैगर की रामनवमी पर झांकियां निकलते हैं, और बाक़ी इन झांकियों को देखकर चुप रहते हैं, इन्हे भी अगर जैश-लश्कर, कसाब, आंद्रे ब्रेविक या ब्रेंटन टैरंट जैसी ‘सुविधाएँ’ मिल जाएँ तो ये लोग नूज़ीलैण्ड से भी दस गुने बड़े नर संहार कर डालें।

फिर से बात करते हैं न्यूज़ीलैंड की मस्जिदों में हुए हमलों में मारे गए 49 निर्दोष लोगों की मौत की, लोग इस हमले को रेसिस्ट हमला तो कोई लोनली वुल्फ बता रहा है, मगर इसे आतंकी हमला कहने से खुद न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री ने भी प्रारम्भ में बचने की कोशिश की थी, वहीँ आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्रीने कहा था कि न्यूजीलैंड की मस्जिदों में हमला करने वाला ‘आतंकवादी आस्ट्रेलियाई है।

सुनियोजित इस्लमोफिबिक प्रोपगंडे के तहत ‘आतंकवाद’ शब्द को मुसलमानों या इस्लाम के साथ चिपका देने की कोशिश का ही ये नतीजा है कि विश्व में कहीं भी कोई दूसरे धर्म के लोग या संगठन नर संहार करता है तो उन्हें आतंकवादी या आतंकवाद कहने से परहेज़ किया जाने लगा है, इस्लामोफोबिया शब्द की खोज ब्रिटेन में 1996 में स्वघोषित ‘कमीशन ऑन ब्रिटिश मुस्लिम एंड इस्लामोफोबिया’ ने की थी, इस शब्द का वास्तविक अर्थ है ‘ इस्लाम के खिलाफ खौफ’, दरअसल मुसलमानों के खिलाफ एक प्रोपेगंडा ही है, साथ ही इस्लामोफोबिया बढ़ती सामाजिक और राजनीतिक महत्व का विषय बन गया है, सलमान रुश्दी की “‘ द सैटेनिक वर्सेज के बाद और फिर और 11 सितंबर के हमलों के बाद से इस्लामोफोबिया में तेज़ी देखी गयी।

और आगे इसी इस्लामोफोबिया को खाद पानी दिया अमरीका, इज़राइल और अरब देश के गठबंधन और फंडिंग से तैयार आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट या आइसिस ने, वर्तमान में विश्व में जो मुस्लिम विरोध लहर नज़र आ रही है, उसको तैयार करने में इस आतंकी संगठन का बहुत बड़ा हाथ है, दुनिया इसे इस्लामी आतंकी संगठन कहती है मगर इस संगठन ने चार पांच दशकों में विश्व के मुसलमानों का जितना नुकसान किया है शायद ही किसी ने किया हो, इराक से लेकर मिस्र और लीबिया से लेकर सीरिया तक इसके कारनामें परखिये सब समझ आ जायेगा।

The Guardian ने अपनी एक Special Story में बताया था कि आज विश्व में ‘इस्लामोफोबिया’ करोड़ों डॉलर का उद्योग बन चुका है।

और इस ‘इस्लामोफोबिया ‘ की फसल काट रहे हैं विश्व के कई देशों के दक्षिणपंथी संगठन, जहाँ इस्लामिक स्टेट के स्लीपर सेल या उसके मॉड्यूल द्वारा अमरीका और यूरोप में जितने भी हमले किये उससे उस जगह उस देश में मुस्लिम विरोधी माहौल तुरंत तैयार हुआ और इस माहौल को उन देशों के कट्टर दक्षिणपंथी संगठनों ने जमकर भुनाया, खुद डोनाल्ड ट्रम्प इस्लामोफोबिया के कालीन पर चलते हुए सत्ता तक पहुंचे हैं।

इसी इस्लामिक स्टेट के बवाल के चलते पिछले दशक में आठ दस लाख लोग सीरिया, लीबिया, मिस्र इराक़ जैसे देशों से विस्थापित हुए हैं और शरणार्थियों के रूप में यूरोपीय देश पहुंचे हैं पहुंचे हैं, इसमें जर्मनी, फ़्रांस, ब्रिटैन, कनाडा, ग्रीस, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड भी शामिल हैं, इतनी बड़ी मात्रा में लोगों का विस्थापन और शरणार्थी बनकर इन देशों में आ जाने से इन देशों के दक्षिणपंथी संगठनों में नाराज़गी और आक्रोश पैदा हुआ, और इसका नतीजा हुआ शरणार्थियों पर हमले, मुसलमानों पर हमले, मस्जिदों पर हमले, सार्वजानिक स्थानों, पार्कों, बसों, ट्रेनों, यहाँ तक कि स्कूलों में भी मुस्लमान इस दक्षिणपंथी संगठनों की बोई नफरत का शिकार होने लगे, सबसे ज़्यादा नफरती हमले जर्मनी, अमरीका, ब्रिटैन, फ़्रांस ऑस्ट्रेलिया में हुए।

न्यूज़ीलैंड का ये नरसंहार देखकर नार्वे के आतंकी आंद्रे ब्रेविक की याद आ गयी जिसने 22 जुलाई 2011 को ठीक ऐसा ही गोलीकांड किया था और 77 निर्दोष लोगों को मार डाला था, न्यूज़ीलेंड आतंकी हमले के आरोपी ब्रेंटन टैरंट और नार्वे के आंद्रे ब्रेविक में बहुत समानताएं हैं, हत्याकांड की वजह, तरीक़ा, विचारधारा, मेनिफेस्टो लिखना और सोशल मीडिया पर दक्षिणपंथी संगठनों से जुड़ाव। खुद आरोपी ब्रेंटन टैरंट का भी कहना है कि वो आंद्रे ब्रेविक से प्रेरित था।

सोशल मीडिया इस तरह के नफरती एजेंडों का बड़ा स्त्रोत बन गया है, नार्वे में 77 निर्दोष लोगों की हत्या करने वाला आंद्रे ब्रेविक भी सोशल मीडिया पर दक्षिणपंथी संगठनों के संपर्क में था, नूज़ीलैण्ड के आतंकी ने जहाँ 37 पन्नो का मेनिफेस्टो लिखा है वहीँ आंद्रे ब्रेविक ने भी 1,500 पन्नो का मेनिफेस्टो लिखा था।

म्यनमार में हुए रोहिंग्या नरसंहार में भी सोशल मीडिया ने बड़ी भूमिका निभाई थी, इसी के चलते फेसबुक ने म्यनमार के सैन्याद्यक्ष सहित कई बड़े अधिकारीयों के फेसबुक अकाउंट डिलीट किये थे, भारत में भी सोशल मीडिया नफरत, हेट स्पीच, दुष्प्रचार और मुस्लिम विरोधी एजेंडों का बड़ा अड्डा बन गया है, दक्षिणपंथी संगठन खुल कर अपने नफरती एजेंडे इस मंच पर परोस रहे हैं, मगर सरकार इसे रोकने के लिए बिलकुल भी प्रतिबद्ध नहीं है।

भारत में सोशल मीडिया पर दक्षिणपंथी संगठनों और मुस्लिम विरोधी एजेंडों की धूम नार्वे के आतंकी आंद्रे ब्रेविक तक भी पहुंची थी, वो भारत के हिन्दू दक्षिणपंथी संगठनों से भी प्रेरित था, अपने 1500 पेज के मेनिफेस्टो में उसने भारत के हिन्दू दक्षिणपंथी एजेंडों का ज़िक्र कई बार किया है।

और आंद्रे ब्रेविक ने अपने मेनिफेस्टो का LOGO भी वाराणसी से ही ऑनलाइन बनवाया था, इससे समझ सकते हैं कि भारत के हिन्दू दक्षिणपंथी संगठनों की नफरती मुहीम या इस्लामॉफ़ोबिक प्रोपगंडे ने सोशल मीडिया पर कितने पांव पसार लिए हैं, नूज़ीलैण्ड नरसंहार पर खुशियां मानाने वाले हज़ारों सांप्रदायिक लम्पटों के कमेंट्स और पोस्ट देखकर समझ सकते हैं, ये सब देश के भविष्य, सामाजिक समरसता, परस्पर सद्भाव और धर्म निरपेक्ष लोकतंत्र के लिए बहुत बड़ा खतरा है।

एक प्रायोजित आतंक ‘इस्लामोफोबिया’ की काट करने के लिए दक्षिणपंथियों ने इस्लामॉफ़ोबिक आतंकी तैयार करना शुरू कर दिए हैं, अभी पिछले माह ही कनाडा (क्वेबेक) की एक मस्जिद में जनवरी 2017 को गोलीबारी में 6 लोगों की हत्या करने वाले एक दक्षिणपंथी और डोनाल्ड ट्रम्प के समर्थक अलेक्जेंडर बिसोनेट को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी थी, वो भी इसी दक्षिणपंथी संगठनों के प्रोपगंडे के चलते अपनी ज़िन्दगी ख़राब कर बैठा।

ये बात फिर से साबित हो गयी है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, आतंकवादी के धर्म को पूरे समुदाय पर थोपने की कुचेष्ठा का प्रोपेगंडा ही गलत है, कसाब या लश्कर या फिर जैश के आतंकी होने का मतलब ये नहीं कि भारत का हर मुस्लिम आतंकी है, या फिर शंभूलाल रैगर, या गौरक्षक गुंडों की या बापू के पुतले को प्रतीकात्मक गोली मारने वालों की करतूत की वजह से पूरा हिन्दू समुदाय तो इसका ज़िम्मेदार नहीं हो जाता, ना ही ब्रेंटन टैरंट या फिर नार्वे के आंद्रे ब्रेविक की करतूतों की वजह से उनका धर्म या समुदाय या देश आतंकी नहीं हो जाता।

मानवीयता सर्वोपरि होना चाहिए, मरने वाले निर्दोष ‘इंसानों’ की मौतों पर यदि कोई अट्टहास कर रहा है तो वो मानव तो बिलकुल नहीं हो सकता, भले ही किसी भी धर्म या जाति या देश का हो।

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