इतिहास के एक कालखंड से एक घटना ‘सारागढ़ी युद्ध’ को फिल्म के रूप में प्रस्तुत कर निर्माता निर्देशक क्या साबित करना चाहता है, ये जनता समझ रही है, कुछ लोग इसे जानबूझ कर सांप्रदायिक रंग भी देने की कोशिश कर रहे हैं जो कि इस फिल्म की मार्केटिंग स्ट्रेटेजी का ही हिस्सा भी है, लोग इसे सिख और मुस्लिमों के बीच वैमनस्य बोने के लिए भी टूल की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं।

जैसे एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर फिल्म आयी थी, आकर सियासी तमाशे कर गायब हो गयी, अब मोदी जी पर फिल्म आई है, और ये सारागढ़ी, कुछ दिन की वैचारिक बहस, उन्माद और दुष्प्रचार और साजिशों के बाद गायब हो जाएगी, लोग इसे ठीक वैसे ही भूल जायेंगे जैसे एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर को भूल गए हैं।

 

बात अगर ब्रिटिश राज के भारत में अंग्रेज़ों के लिए लड़कर वीरता या राष्ट्रवाद साबित करने की ही है तो फिर इतिहास के कालखंड से उठाई इस घटना को लेकर जो कुंठित और नफरती लोग इस फिल्म को लेकर मुसलमानों पर तंज़ और तानेबाजी कर रहे हैं वो ये जान लें कि तब के ब्रिटिश राज के अविभाजित भारत के लिए मर मिटने वालों में मुसलमानों का भी सिख भाइयों के साथ गौरवशाली इतिहास दर्ज है, जिसे इन जैसे जाहिल कभी नहीं मिटा सकते, ये लंदन गजेट में और वहां के दस्तावेज़ों में संरक्षित हो चुका है।

युद्ध क्षेत्र में नमाज़ अदा करते ब्रिटिश भारतीय मुस्लिम.

जैसे हवलदार ईशर सिंह की वीरता और साहस इतिहास में दर्ज है, तत्कालीन ब्रिटिश भारत के लिए मर मिटने वाले ऐसे सैंकड़ों हज़ारों हवलदार ईशर सिंह जैसे सिख, खुदादाद खान और दरबान सिंह नेगी जैसे यौद्धा मिलेंगे जो अन्य भारतीय सैनिकों के साथ देश के लिए शहीद हुए, उन्हें प्रतिष्ठित विक्टोरिया क्रॉस से नवाज़ा गया और जिनके स्मारक इज़राइल से लेकर इंग्लैंड और बेल्जियम से लेकर फ़्रांस और तुर्की तक देखे जा सकते हैं।

पीछे मुड़कर विश्वयुद्ध I और II के समय के ब्रिटिश राज के भारत को देखें तो 1858 और 1947 तक भारत, ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा था, और इन दोनों विश्व युद्धों में तत्कालीन अविभाजित ब्रिटिश भारत की इन दोनों विश्व युद्धों में हिस्सेदारी और इनमें भाग लेने वाले सैन्य शक्ति बल को देखें जिसमें न सिर्फ सिख, मुसलमान, हिन्दू, ईसाई बल्कि ब्रिटिश भी शामिल थे। 

प्रथम विश्व युद्ध 1914-1918 में यूरोपीय, भूमध्यसागरीय और मध्य पूर्व के युद्ध क्षेत्रों में अपने अनेक डिविजनों और स्वतंत्र ब्रिगेडों का योगदान दिया था। 1,500,000 लाख भारतीय सैनिकों ने विदेशों में अपनी सेवाएं दी थीं जिनमें 400,00 मुसलमान थे, इन 1,500,000 लाख में से 74,000 कभी वापस नहीं लौटे, न लौटने वालों में सभी धर्मों के सैनिक और अफसर थे, उनको फ़्रांस, ग्रीस, उत्तरी अफ़्रीक़ा, फ़लस्तीन और मेसोपोटामिया में ही दफ़ना दिया गया।

जो लौट के घर ना आये.

द्वितीय विश्वयुद्ध 1939-1945 को देखें तो 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारतीय सेना में मात्र 200,000 लोग शामिल थे। युद्ध के अंत तक यह इतिहास की सबसे बड़ी सेना बन गई थी जिसमें कार्यरत लोगों की संख्या बढ़कर अगस्त 1945 तक 25 लाख से अधिक हो गई थी। पैदल सेना (इन्फैन्ट्री), बख्तरबंद और हवाई बल के डिवीजनों के रूप में अपनी सेवा प्रदान करते हुए इन सबने अफ्रीका, यूरोप और एशिया के महाद्वीपों में युद्ध किया।

 

सर्वोच्च ब्रिटिश सैन्य सम्मान विक्टोरिया क्रॉस :
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युद्ध में बहादुरी, असाधारण पराक्रम और युद्ध कौशल के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च ब्रिटिश सैन्य सम्मान विक्टोरिया क्रॉस 1856 में शुरू हुआ था और प्रारम्भ में केवल ब्रिटिश मूल के गोरे सैनिकों को ही दिया जाता था मगर बाद में 1912 से ये भारतीयों को भी दिए जाने के आदेश जॉर्ज पंचम ने दे दिए थे।

London Gazette के अनुसार प्रथम विश्वयुद्ध के वीरों में विक्टोरिया क्रॉस सम्मान प्राप्र्त करने वाले पहले भारतियों में खुदादाद खान (January 1915 ) का नाम है, इनके साथ दरबान सिंह नेगी का भी नाम हैं। दोनों को ये सम्मान एक ही दिन प्रदान किये गए थे।

विक्टोरिया क्रॉस विजेता दरबान सिंह नेगी (नवम्बर 1881 – 24 जून 1950 .

प्रथम और द्वितीय विश्व युद्धों में ब्रिटिश भारत के वो मुस्लिम नायक जिन्हे सर्वोच्च ब्रिटिश वीरता पुरस्कार विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया था।

खुदादाद खान  : 1914 (प्रथम विश्व युद्ध)

विश्व युद्ध I – II के लिए विक्टोरिया क्रॉस सम्मान प्राप्त करने वाले मुस्लिम नायकों में और नाम हैं :-

मीर दस्त खान – 1915 (प्रथम विश्व युद्ध)
शाहमद खान – 1916 (प्रथम विश्व युद्ध)
अब्दुल हफ़ीज़ – 1944 (द्वितीय विश्व युद्ध)
अली हैदर – 1945 (द्वितीय विश्व युद्ध)
फज़ल दीन – 1945 (द्वितीय विश्व युद्ध)
शेर शाह – 1945 (द्वितीय विश्व युद्ध)

हवलदार ईशर सिं : अप्रेल 1921

के बाद विक्टोरिया क्रॉस सम्मान प्राप्त करने वाले बहादुर सिख नायकों के नाम हैं :-
नन्द सिंह : मार्च 1944
नायक ज्ञान सिंह : मार्च 1945
प्रकाश सिंह : जनवरी 1943
कमल जीत सिंह : मार्च 1945
रामसरूप सिंह : अक्टूबर 1944

ये सब नाम इस सूची में देख सकते हैं।

तब के अविभाजित ब्रिटिश भारत के इन सभी धर्मों के हज़ारों वीरों के शौर्य की कहानियां दुनिया भर के कई देशों में कई क़ब्रों, समाधियों और युद्ध स्मारकों पर नाम के रूपों में दर्ज हैं जिनमें प्रमुख हैं :-

1 . इंडिया गेट वॉर मेमोरियल :
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प्रथम विश्वयुद्ध के शहीदों की स्मृति में ये युद्ध स्मारक 12 फ़रवरी 1931 को बनकर तैयार हुआ था, कॉमनवेल्थ वॉर ग्रेव्स कमीशन (CWGC) के अनुसार इस पर 90000 शहीदों के नाम दर्ज हैं जो प्रथम विश्वयुद्ध 1914–21 के दौरान शहीद हुए थे।

2 . हाइफा (इज़राइल) वॉर मेमोरियल :-
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प्रथम विश्व युद्ध के दौरान (1914-1918) भारतीय सैनिकों ने अप्रतिम साहस का परिचय देते हुए इजरायल के हाइफा शहर को आजाद कराया था। इस युद्ध में भारत के 44 सैनिक शहीद हुए थे। उनकी याद में हाइफा में ये युद्ध स्मारक बनाया गया था।

हाइफा युद्ध स्मारक (इज़राइल) पर भारतीय शहीदों को श्रद्धांजलि देते पीएम मोदी.

3 . नूवे शेपल युद्ध स्मारक – फ़्रांस :
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1914 में फ़्रांस में जर्मनी के खिलाफ लड़ते हुए क़रीब साढ़े चार हज़ार भारतीय सैनिक शहीद हुए थे, उन भारतीय सैनिकों की याद में नूवे शेपल युद्ध स्मारक 1927 में बनाया गया था।

4 . छतरी युद्ध स्मारक ब्रिटेन :
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प्रथम विश्व युद्ध के दौरान (1914 – 1915) में ब्रिटेन में शहीद हुए भारतीय सैनिकों की याद में बने इस स्मारक का उद्धघाटन फ़रवरी 1921 को किया गया था।

5 . मेनिन गेट मेमोरियल, बेल्जियम :
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बेल्जियम के फ्लैंडर्स इलाके का येप कस्बा पहले विश्व युद्ध में मौत का अखाड़ा बन गया था. यह वह जगह है जो जर्मनी और मित्र देशों के सैनिकों के बीच लंबे समय तक हुई भयंकर लड़ाई की साक्षी बनी. इस स्थान को यादगार स्मारक के तौर पर तैयार किया गया है. मेनिन गेट पर इस युद्ध में मारे गए लगभग 55,000 सैनिकों के नाम खुदवाए गए हैं. इसमें से 413 नाम भारतीय सैनिकों के हैं जिन्होंने इस लड़ाई में अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे।

5 . हेलस स्मारक गैलिपोली, तुर्की :
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उन कॉमनवेल्थ सैनिकों के लिए स्मरणोत्सव का एक स्थान है, जहां गैलीपोली में प्रथम विश्वयुद्ध में 8 महीने के अभियान के दौरान मृत्यु हो गई. इसमें 1516 भारतीय थे।

ब्रिटिश भारत के तब हवलदार ईशर सिंह लड़े थे तो खुदादाद खान और दरबान सिंह नेगी भी लड़े थे, मीर दस्त खान लड़े थे तो नायक ज्ञान सिंह भी लड़े थे, और इन जैसे हज़ारों सिख, मुसलमान, हिन्दू, ईसाई, गोरखा भी लड़े थे, हज़ारों तो लौटकर भारत भी नहीं आ पाए।

केसरी फिल्म को लेकर तमाशे करने वाले और मुसलमानों पर तंज़ करने वाले वही लोग हैं जो सम्राट अकबर से लेकर टीपू सुलतान का चरित्र हनन करते आये हैं, जो जोधा अकबर धारावाहिक को लेकर सड़कों पर बवाल करने खड़े हो जाते हैं, पद्मावत फिल्म के विरोध में पूरे भारत में हंगामा खड़ा कर देते हैं, ये इतिहास से कबड्डी खेल कर अपनी कुंठा शांत करके खुश होने वाला गिरोह है, और ये गिरोह भी न्यू इंडिया की ही एक बड़ी उपलब्धियों में से एक है।

ये वही गिरोह है जो पुलवामा हमले के बाद कश्मीरियों के साथ मारपीट करता है, कठुवा गैंगरेप और हत्या के आरोपियों को सिर्फ इसलिए बचाने सड़क पर आ जाता है कि वो बच्ची मुस्लिम थी, न्यूज़ीलैंड आतंकी हमले में मारे गए 50 लोगों की मौत पर इसलिए ख़ुशी मनाता है कि वो सभी मुस्लिम थे, इसलिए अगर ऐसा गिरोह केसरी फिल्म को लेकर मुसलमानों को निशाने पर ले रहा है तो इसमें उनके संस्कार, सोच, कुंठा और पूर्वाःग्रह का ही दोष है फिल्म का इसमें कोई दोष नहीं।

इसलिए और केसरी फिल्म का लोड लेने वाले मुसलमानों को इस प्रायोजित तमाशे की परवाह नहीं करना चाहिए, बल्कि उन लोगों पर भारत की आज़ादी की लड़ाई में मुस्लिम क्रांतिकारीयों और शहीदों की सूची मुंह पर फेंक मारिये. जिस गिरोह ने आज़ादी की लड़ाई में जिसने अपना एक नाखून तक नहीं कटवाया उनकी क्या औक़ात कि वो भारत के मुसलमानों के राष्ट्रवाद पर ऊँगली उठायें।

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