स्पेशल रिपोर्ट वाया : NewsClick

उत्तर प्रदेश में CAA-NRC विरोध प्रदर्शनों के दौरान राज्य सरकार की क्रूर कार्रवाही में 23 लोग मारे गए थे। मरने वालों में ज्यादातर दिहाड़ी मुस्लिम मज़दूर थे जो कथित रूप से पुलिस की गोलियों का शिकार हुए। सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि इन मौतों के एक महीने बाद भी केवल तीन परिवारों को ही पोस्टमार्टम रिपोर्ट मिली है।

अब समय बीतने के साथ इन मौतों और सरकार की दमनात्मक कार्रवाही को लेकर सवाल उठने लगे हैं।

इस हादसे में सबसे ज्यादा मौतें फिरोजाबाद जिले से हुईं, जिनमें सात लोग मारे गए, जिनमें मेरठ के पांच लोग, कानपुर में तीन, बिजनौर और संभल में दो-दो और लखनऊ, मुजफ्फरनगर, रामपुर और वाराणसी में एक-एक लोग मारे गए।

मौतों की वजह :

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, गोली लगने से 21 लोग हताहत हुए, लाठीचार्ज के दौरान मची भगदड़ में एक नाबालिग को कुचल दिया गया और एक व्यक्ति की पत्थर से सिर में चोट लगने से मौत हो गई। हालांकि कई राजनीतिक दलों और विभिन्न फेक्ट फाइंडिंग कमेटीज़ ने आरोप लगाया है कि अधिकांश मौतें पुलिस की गोलियों के कारण हुईं।

विडंबना यह है कि इन 23 मौतों में से के केवल तीन परिवारों को ही पोस्टमार्टम रिपोर्ट मिली है, जबकि शेष 20 परिवारों को अभी भी पोस्टमार्टम रिपोर्ट का इंतजार है। माकपा पोलित ब्यूरो की सदस्य सुभाषिनी अली (जिन्होंने मेरठ, बिजनौर और कानपुर का दौरा किया और हिंसा में मारे गए लोगों के परिवारों और रिश्तेदारों से मुलाकात की) ने दावा किया कि सभी चोटें और मौतें कमर के ऊपर गोली लगने से हुईं।

सुभाषिनी अली ने न्यूज़ क्लिक को बताया कि ये बहुत ही दुखद बात है मारे गए ज्यादातर लोग युवा थे, जो बेहद गरीब अल्पसंख्यक समुदाय से ताल्लुक रखते थे।

सुभाषिनी अली आगे बताती हैं कि अनस और सुलेमान के परिवार को दी गई पोस्ट मार्टम रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि दोनों की मौत गोलियां लगने से हुई हैं। लखनऊ में मारे गए मोहम्मद वकील की पोस्टमार्टम रिपोर्ट भी उसके परिवार को दे दी गई है और मेरा मानना ​​है कि वह भी पुलिस की गोली से ही मारा गया था। गोलियों से मारे गए अन्य पीड़ितों के परिवारों को पोस्टमार्टम रिपोर्ट नहीं मिली है। न तो इन परिवारों ने पुलिस के खिलाफ कोई FIR दर्ज कराई है, न ही उन्हें कोई मुआवजा मिलने वाला है। यह बेहद अन्यायपूर्ण और गैरकानूनी काम है जो यूपी सरकार ने किया है।

जब उनसे पूछा गया कि यूपी के अधिकारी पीड़ितों के परिवारों को पोस्टमार्टम रिपोर्ट क्यों नहीं दे रहे हैं, तो सुभाषिनी अली ने कहा, “इसका कारण यह है कि सरकार इस तथ्य को छुपाना चाहती है कि पुलिस ने ही वास्तव में इन युवकों को फायरिंग में मार डाला है। ये सभी लोग कमर से ऊपर, कुछ सिर में, कुछ आंख में, कुछ पेट में, कुछ छाती में और कुछ पीठ में गोलियां लगने से मारे गए हैं। इसी तथ्य को सरकार छिपाना चाहती है। शुरू में प्रशासन का कहना था कि एक भो गोली नहीं चलाई गई मगर अब उन्हें बयान बदलना होगा।”

कानपुर के पूर्व सांसद ने पुलिस की बर्बरता और दमन के पैटर्न के बारे में बताते हुए, “हमें याद रखना चाहिए कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बदला लेने के बयान देने के बाद पुलिस अधिकारियों ने उसी के अनुसार काम किया और गोलीबारी और भगदड़ मचाई।”

इससे पहले, पीड़ितों के परिवारों ने न्यूज़क्लिक को बताया कि वे पुलिस के खिलाफ FIR और शिकायत दर्ज नहीं कर सकते क्योंकि उन्हें पोस्टमार्टम रिपोर्ट नहीं मिली थी। इसके अलावा, कई परिवारों ने FIR और शिकायत इसलिए दर्ज नहीं कराई कि इसके बाद कहीं पुलिस उन्हें झूठे मामलों में न फंसा दे।

इससे पहले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने चेतावनी दी थी कि वह उन लोगों की संपत्ति को जब्त कर लेंगे जो राज्य में विरोध प्रदर्शन के दौरान हिंसा में शामिल थे। उन्होंने कहा था कि “लोग विरोध के नाम पर हिंसा नहीं कर सकते। हम ऐसे तत्वों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करेंगे। दोषी पाए गए लोगों की संपत्ति जब्त कर लेंगे और सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान की भरपाई करेंगे।”

गौरतलब हो कि 19 दिसंबर’ 2019 को आदित्यनाथ की विवादास्पद “बदला” लेने वाली टिप्पणी के बाद राज्य भर में प्रदर्शनकारियों पर पुलिस का क़हर टूट पड़ा था। एक्टिविस्ट्स ने आरोप लगाया कि संपत्तियों को जब्त करने के डर से कई परिवार भयभीत हैं और पुलिस के खिलाफ कार्रवाही में रुचि नहीं रखते।

हिंसा के दौरान मारे गए अधिकांश प्रदर्शनकारियों के परिवारों की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी और पीड़ितों में से अधिकांश दिहाड़ी मज़दूर थे।

मेरठ में गोली लगने से मारे गए पांच लोगों में : मोहम्मद आसिफ (20), अलीम अंसारी (24), जहीर अहमद (45), आसिफ (33), मोहसिन (28) थे।

पीड़ित-मोहम्मद अनस (22), मोहम्मद सुलेमान (20) बिजनौर जिले के नेहटौर के रहने वाले हैं। मोहम्मद शफीक (40), अरमान उर्फ ​​कल्लू (24), मुकीम (20), मोहम्मद हारून (36), नबी जान (22), राशिद (27), मोहम्मद अबरार (26) फिरोजाबाद के हैं। मोहम्मद सगीर (8) वाराणसी से है। जबकि, मोहम्मद सैफ (25), रईस खान (30), आफताब आलम (23) कानपुर हैं। फैज खान (25) रामपुर से आया था, जबकि मोहम्मद नूर उर्फ ​​नूरा (30) मुजफ्फरनगर का निवासी था। शाहरोज उस्मानी (22) और बिलाल पाशा (31) संभल के थे और मोहम्मद वेकेल (25) लखनऊ के थे।

इस हादसे में सबसे ज्यादा मौतें फिरोजाबाद जिले से हुईं, जिनमें सात लोग मारे गए, जिनमें मेरठ के पांच लोग, कानपुर में तीन, बिजनौर और संभल में दो-दो और लखनऊ, मुजफ्फरनगर, रामपुर और वाराणसी में एक-एक लोग मारे गए।

न्यूज़क्लिक ने अनस और मोहम्मद सुलेमान के परिवारों से बात की जिन्होंने बिजनौर जिले के नेहटौर में पुलिस गोलीबारी में अपनी जान गंवा दी। सुलेमान सिविल परीक्षा की तैयारी कर रहा था और अनस दिल्ली में दैनिक मज़दूरी पर था। अनस के पिता अरशद हुसैन ने न्यूज़क्लिक को बताया “वो अपने बच्चे के लिए दूध खरीदने के लिए बाहर निकला था, विरोध प्रदर्शन से उनका कोई लेना-देना नहीं था।”

फिरोजाबाद के रशीद ने सिर पर चोटों की वजह से दम तोड़ दिया और कानपुर में शुक्रवार (20 दिसंबर) को हुए विरोध प्रदर्शनों के दौरान एक 28 वर्षीय एचआईवी मरीज की दम घुटने से मौत हो गई।

रामपुर के फैज़ खान को कथित तौर पर गले में गोली मार दी गई थी, जबकि ज़हीर, अलीम, मोहसिन और आसिफ ने 20 दिसंबर को हुए विरोध प्रदर्शनों के दौरान कथित फायर आर्म्स की चोटों के कारण दम तोड़ दिया था।

उत्तर प्रदेश में CAA विरोधी प्रदर्शनों के दौरान पुलिस के क्रूर दमन और बाद में कथित तौर पर पुलिस फायरिंग में 23 लोगों की मौत इस बात का स्पष्ट संकेत देती हैं कि राज्य सरकार मानवीय तरीके से विरोध प्रदर्शनों को नियंत्रित करने में असफल साबित हुई है।

16 जनवरी को नई दिल्ली में ‘पीपुल्स ट्रिब्यूनल’ का आयोजन किया गया जहाँ पीड़ितों के परिवारों और फेक्ट फाइंडिंग कमेटी की कई गवाहियां मिलने के बाद जूरी ने 19-20 दिसंबर को यूपी पुलिस की पक्षपातपूर्ण कार्रवाई और आचरण पर तीखी टिप्पणी की।

ज्यूरी के अध्यक्ष एपी शाह और सुदर्शन रेड्डी ने कहा, “इन तथ्यों से स्पष्ट है कि पूरे राज्य की मशीनरी ने राज्य की मुस्लिम आबादी और आंदोलन का नेतृत्व करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को निशाना बनाते हुए गंभीर पूर्वाग्रह और हिंसा के साथ काम किया।”

हड़बड़ी में अन्त्येष्टियाँ :

हर मौत में एक चीज़ सामान्य है वो ये कि मृतिकों को शीघ्र दफन करने पर मजबूर करना, कोई उचित अंतिम संस्कार नहीं, और परिवारों को भोर से पहले अंतिम संस्कार और दफन करने के लिए मजबूर किया गया। कई परिवारों ने दावा किया कि वे पुलिस के सामने हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हैं कि वे अपने प्रियजनों को अपने स्थानीय कब्रिस्तान में दफनाने की अनुमति दें, लेकिन पुलिस ने उन्हें यह कहते हुए अनुमति नहीं दी कि इससे सांप्रदायिक हिंसा भड़क सकती है।

न्यूज़क्लिक ने मेरठ में दो और बिजनौर में मारे गए लोगों के पांच परिवारों से मुलाकात की और फ़िरोज़ाबाद और कानपुर के कई परिवारों से फोन पर बात की। सभी ने एक ही कहानी सुनाई कि पुलिस ने शहरों से दूर दफनाने के लिए मजबूर किया, और कई मामलों में पुलिस ने मृतकों को ग़ुस्ल देने की भी अनुमति नहीं दी, जो इस्लाम में अंतिम क्रिया में बहुत ज़रूरी है।

मेरठ में मारे गए पांचों, सभी मुसलमान, दिहाड़ी मज़दूर, ई-रिक्शा चालक या कामगार थे। फिरोजाबाद में मारे गए सात लोग ज्यादातर स्थानीय चूड़ी कारखानों में मजदूर थे, जिसके लिए यह शहर प्रसिद्ध है। अपने चमड़े के उद्योग के लिए जाना जाने वाले शहर कानपुर में तीन दिहाड़ी कामगारों की मौत हुई जो एक टेनरी में काम करते थे। संभल में जिन दो लोगों की मौत हुई है, वे ट्रक ड्राइवर और दिहाड़ी मज़दूर थे। मुजफ्फरनगर में मारा गया भी एक दिहाड़ी मज़दूर ही था। लखनऊ में मरने वाले एक युवक एक ऑटो-रिक्शा चालक था, और बिजनौर में दो मृत व्यक्तियों में दिल्ली में एक आम नागरिक और एक सिविल सेवा एस्पिरेंट शामिल थे।

(फोटो साभार : न्यूज़ क्लिक)

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