दिल्ली उच्च न्यायालय ने सोमवार को एक महिला सुल्ताना बेगम की वो याचिका खारिज कर दी जिसमें लाल किला उसे सौंपने का निर्देश देने की मांग की गई थी, इस आधार पर कि वह अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर की कानूनी वारिस है। सुल्ताना बेगम नाम की महिला दिवंगत मिर्जा मोहम्मद बेदार बख्त की विधवा हैं, जो दिल्ली के आखिरी सुल्तान मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर द्वितीय के पड़पोते बताए जा रहे हैं।

सुल्ताना बेगम ने दिल्ली उच्च न्यायालय में प्रार्थना पत्र दिया था कि या तो उन्हें लाल किला पर कानूनी कब्जा दिलाया जाए या फिर भारत सरकार उसके बदले में उन्हें पर्याप्त मुआवजा दे। मुआवजे की रकम के तौर पर उन्होंने 1857 से लेकर अब तक के समय को शामिल कर रही थीं।

पश्चिम बंगाल के हावड़ा की एक झुग्गी बस्ती में रहने वाली सुल्ताना ने कहा कि वह मुगल बादशाह के पड़पोते मिर्जा मोहम्मद बेदार बख्त की विधवा है, बेदार बख्त के बारे में दावा किया जाता है कि वह ‘रंगून से फरार होने में कामयाब’ हो गए थे। याचिका में कहा गया है कि भारत सरकार ने बेदार को 1960 में बहादुर शाह द्वितीय के उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता दी थी और पूर्व की मृत्यु के बाद उन्हें पेंशन मिलने लगी थी।

आज दिल्ली उच्च न्यायालय ने सुल्ताना बेगम की लाल किले पर पैतृक अधिकार जताने वाली याचिका खारिज कर दी है। जस्टिस रेखा पल्ली की बेंच ने याचिका खारिज करते हुए कहा कि इस अर्जी में 170 साल की असाधारण देरी हो चुकी है और यह भी साफ किया कि कोर्ट इस केस की मेरिट पर नहीं जा रहा है। जब याचिकाकर्ता के वकील ने अदालत से कहा कि उसकी क्लाइंट निरक्षर हैं और वह इसी वजह से अब तक अदालत तक नहीं पहुंच पाईं तो जज ने कहा कि यह जवाब तर्कसंगत नहीं है।।

अदालत ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि महिला अनपढ़ और गरीब है और कहा कि वह इस पर टिप्पणी नहीं कर रही थी कि बहादुर शाह जफर उसके पूर्वज थे या नहीं, बल्कि यह जानना चाहते हैं कि वो अब अदालत का दरवाजा कैसे खटखटा सकती है।

“आपके अनुसार, 1857 में अन्याय किया गया था। 170 साल बाद आपने अदालत का दरवाजा खटखटाया है, कृपया बताएं कि आप यह कैसे कर सकते हैं। फिर हम योग्यता पर आएंगे, आप लाल किले के मालिक कैसे हैं, हम देखेंगे।

भारत सरकार को लाल किले पर अवैध कब्जा करने वाला बताते हुए याचिका में दावा किया गया है कि महिला को उसकी पुश्तैनी संपत्ति से बिना किसी मुआवजे के वंचित किया गया है। याचिका में यह भी कहा गया है कि जब बहादुर शाह जफर को ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा निर्वासित किया गया था, तो उन्होंने “कानून और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत पर विचार किए बिना” उनकी संपत्ति पर कब्जा कर लिया था।

याचिका को “समय की बर्बादी” करार देते हुए और अत्यधिक देरी के आधार पर इसे खारिज करते हुए, न्यायमूर्ति पल्ली ने कहा, “मेरे विचार में, केवल इसलिए कि याचिकाकर्ता एक अनपढ़ व्यक्ति है, इसका कोई कारण नहीं है कि अगर याचिकाकर्ता के पूर्ववर्ती ईस्ट इंडिया कंपनी की किसी भी कार्रवाई से व्यथित, इस संबंध में प्रासंगिक समय पर या उसके तुरंत बाद कोई कदम नहीं उठाया गया।

याचिकाकर्ता सुल्ताना बेगम के पति मिर्जा मोहम्मद बेदार बख्त का 22 मई 1980 को निधन हो गया था। उसके बाद 1 अगस्त 1980 से केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय ने सुल्ताना बेगम की पेंशन स्वीकृत की थी।

सुनवाई के अंत में और आदेश के बाद, जब अदालत ने अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल चेतन शर्मा से पूछा कि क्या वह कुछ कहना चाहते हैं, तो उन्होंने कहा, “मुझे खुशी है कि भारत सरकार के हाथ से लाल निकला नहीं है।”

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