विशेष आलेख, साभार – प्रियदर्शन जी, वाया : NDTV
बीजेपी के नेता जिस डरे हुए अंदाज़ में अपना बचाव करते हैं, उससे पता चलता है कि गांधी उन्हें कितना डराते हैं।
प्रज्ञा ठाकुर को भले पार्टी के दबाव में माफ़ी मांगनी पड़ी, लेकिन उनकी यह बात सौ फ़ीसदी सही है कि एक ख़ास विचारधारा के तहत गोडसे देशभक्त था, उसकी नज़र में देश की जो परिभाषा थी, उससे वह पूजा करता था, उसकी गांधी जी से कोई निजी दुश्मनी नहीं थी। उसको आरएसएस या हिंदू महासभा ने जो कुछ सिखाया, उस पर उसने पूरी तरह अमल किया ।
संकट यह है कि आज जो आरएसएस या उससे जुड़े संगठन हैं, उनको अपनी वैचारिकता का भरोसा ही नहीं, इसलिए वे गोडसे की तरह गांधी को सामने से गोली नहीं मारते, पीछे-पीछे उनका वध करते हैं। वे विचार नहीं, विचारों की पोशाक लेकर चलते हैं, गांधी के स्कूल में पहुंचे तो गांधी की पोशाक डाल ली, अंबेडकर के स्कूल में पहुंचे तो अंबेडकर का लबादा ओढ़ लिया. लेकिन गोडसे लबादों वाला आदमी नहीं था. उसने सीधे-सीधे एक पिस्तौल ख़रीदी, अपने गुरुओं का स्मरण किया और गांधी को गोली मार दी।
गांधी जी अगर गोडसे की गोली खाकर भी जीवित रह गए होते तो मानते कि गोडसे देशभक्त था, बस उसे यह समझाने की कोशिश करते कि जिसे वह देश समझता है, वह देश नहीं है, जिसे वह धर्म समझता है, वह धर्म नहीं है। प्रज्ञा ठाकुर ख़ुद को साध्वी कहने के बावजूद इतनी समझ नहीं रखतीं कि गोडसे के बारे में ऐसा कोई बचाव कर सकें, वे यह भी नहीं देख पातीं कि जिस बीजेपी ने उनसे माफी मंगवाई, वह ख़ुद भी रोज़ गांधी को किसी न किसी तरीक़े से मारना चाहती है।
आज ही BJP के एक क्षेत्रीय प्रवक्ता ने कहा कि गांधी पाकिस्तान के राष्ट्रपिता हैं, बीजेपी ने उन्हें बाहर कर दिया, दिलचस्प यह है कि यह सोच संघ परिवार के भीतर अरसे से मौजूद रही है, लेकिन शायद अनुशासित संघ परिवार में एक नियम यह चलता है कि आप जो सोचते हैं, वह सार्वजनिक तौर पर स्वीकार नहीं करते, गोडसे की शिकायत ही यही थी कि गांधी पाकिस्तान का पक्ष लेते हैं।
कई गांधी विरोधी यह सवाल पूछते पाए जाते हैं कि गांधी को हम राष्ट्रपिता क्यों कहें ? भारत गांधी के पैदा होने के सदियों पहले से एक देश रहा है, उसे किसी बापू ने जन्म नहीं दिया। पहली दृष्टि में यह तर्क सही लगता है, लेकिन गांधी को किसने राष्ट्रपिता या बापू का दर्जा दिया ?
क्या गांधी ने अपने लिए यह दर्जा मांगा था ? दरअसल गांधी के विरोधी माने जाने वाले सुभाष चंद्र बोस ने गांधी को पहली बार राष्ट्रपिता कहा था, यह 1944 की बात थी, तब जर्मनी में बैठे सुभाषचंद्र बोस को क्यों लगा कि महात्मा गांधी (महात्मा का दर्जा उन्हें रवींद्रनाथ टैगोर ने दिया था) को राष्ट्रपिता कहा जाना चाहिए ?
क्योंकि सुभाष चंद्र बोस यह देख पा रहे थे कि पुराने राग-द्वेषों, पुरानी चौहद्दियों, पुरानी रियासतों और पुराने रजवाड़ों को पीछे छोड़कर, परंपरा की बहुत सारी जकड़नों को झटक कर, आज़ादी की लड़ाई की कोख से जो एक नया भारत निकल रहा है, उसे दरअसल महात्मा गांधी आकार दे रहे थे।
और यह काम वे अकेले नहीं कर रहे थे, इसमें वे पूरे राष्ट्र की सर्वानुमति को साथ लेकर चल रहे थे, जब यह सर्वानुमति उन्हें अपने ख़िलाफ़ लगी तो वे किनारे और अकेले खड़े हो गए। देश दिल्ली में आज़ादी का जश्न मनाता रहा, वे बंगाल में दंगे रोकने में लगे रहे, और जिस उन्माद में देश ने उन्हें अकेला छोड़ा, उसी उन्माद ने उनकी हत्या कर दी।
दरअसल गांधी की हत्या भी यह याद दिलाने वाली मार्मिक घटना थी कि नए बनते देश ने अपना पिता खो दिया है, 30 जनवरी 1948 की रात जितने घरों में चूल्हा नहीं जला, जितने घरों में आंसू नहीं सूखे, उनको गिन लीजिए तो आप पाएंगे कि ऐसा शोक, ऐसा रुदन सिर्फ़ पिता की मृत्यु पर संभव है। पिता वही नहीं होते जो हमें जन्म देने का माध्यम बनते हैं, वे भी होते हैं जिन्हें हम पिता मान लेते हैं।
लेकिन जो रिश्तों और मुल्कों को बिल्कुल जड़ व्याख्या और मूर्ति तक सीमित रखते हैं, उनको ही यह बात समझ में नहीं आती कि कोई व्यक्ति किसी मुल्क का पिता कैसे हो सकता है ? वे यह नहीं समझ पाते कि मुल्क जितना भूगोल में होते हैं, उतना हमारी चेतना में भी बनते रहते हैं, यही व्यक्तियों का भी सच है। व्यक्तियों की पहचान भी कई बार हमारी चेतना में इतनी बड़ी हो जाती है कि वे एक बड़े मूल्य का, कभी-कभी पूरे मुल्क का प्रतीक बन जाते हैं।
RSS यह बात समझता है कि भारत और गांधी एकाकार हो चुके हैं, भारत से प्रेम की बात करने वाले गांधी से नफ़रत की बात नहीं कर सकते, इसलिए उसकी पार्टी BJP प्रज्ञा ठाकुर को माफ़ी मांगने पर मजबूर करती है। लेकिन सच यह है कि इस भारत से भी उसे प्रेम नहीं है, इस देश की सांस्कृतिक बहुलता उसे परेशान करती रही है।
एक दौर में उसके झंडों का तीन रंग उसे चुभा करता था, यह इस देश की लोकतांत्रिक मजबूरी है कि वह अपने मूल विचारों को स्थगित रखती है और सत्ता के लिए गांधी से लेकर अंबेडकर तक का नाम जपने में संकोच नहीं करती।
गांधी अगर पिता भी हैं जो ज़रूरी नहीं कि उन्हें पूजा जाए, अच्छे पिता पूजे जाने के लिए नहीं, तर्क करने के लिए होते हैं. गांधी को पिता कहने वाले सुभाष चंद्र बोस उनसे बहुत दूर तक असहमत रहे। गांधी को महात्मा कहने वाले टैगोर असहयोग आंदोलन को संदेह से देखते रहे और गांधी को कहना पड़ा कि कवि अपनी कल्पना के अलग संसार में रहता है, गांधी को गुरु मानने वाले जवाहरलाल नेहरू ने उनके ‘हिंद स्वराज’ से अपनी गहरी असहमति जताई।
बाद के दौर में Congress जैसे-जैसे गांधी से दूर होती गई, वह उनकी मूर्ति बनाकर उनकी पूजा करने लगी, जैसे इससे उसके पाप धुल जाएंगे। फिर गांधी पर सवाल करने का, गांधी से सवाल करने का चलन ख़त्म होता गया, RSS परिवार गांधी से डरता था, फिर उसने भी जान लिया कि गांधी की पूजा करने से उसके पाप छुपे रहेंगे, संकट यह है कि उसकी वैचारिकी से प्रशिक्षित होकर निकले लोग अचानक गोडसे की मूर्तियां बनाते दिखते हैं, कभी उसे देशभक्त बताते नज़र आते हैं और कभी गांधी पर कीचड़ उछालते मिलते हैं।
लेकिन ऐसी हरकतों पर बीजेपी के नेता जिस डरे हुए अंदाज़ में अपना बचाव करते हैं, उससे पता चलता है कि गांधी उन्हें कितना डराते हैं, सच तो यह है कि यह देश गांधी की संतानों का है, उनके मानस पुत्रों का है, और इसे गोडसे की औलादें नहीं बदल सकतीं।
(प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं)
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