अंध आज्ञाकारियों या मानसिक दासों को तैयार किये जाने पर जर्मनी में नाज़ियों से लेकर अमरीका और यूरोप में कई तरह के मनोवैज्ञानिक प्रयोग किये जाते रहे हैं, इसमें सबसे प्रसिद्द प्रयोग मिलग्राम प्रयोग (Milgram Experiment) कहलाता है।

किसी भी देश में नेता, कम्पनियाँ, सेलेब्रिटी, मठाधीश मनोवैज्ञानिक तौर पर बड़े समूह को किसी भी तरह की फूहड़, क्रूर या अमानवीय कार्यों की आज्ञा देकर उसका आसानी से किस तरह से पालन करा सकते हैं इसका बड़ा सबूत है ‘मिलग्राम प्रयोग’ Milgram Experiment
जिसे आसान भाषा में सामाजिक मनोवैज्ञानिक प्रयोग भी कह सकते हैं।

 

अमरीकी मनोवैज्ञानिक स्टेनली मिलग्राम द्वारा 1963 में येल यूनिवर्सिटी में शुरू हुए इस प्रयोग में लोगों को आज्ञाकारी बनाने के मनोवैज्ञानिक प्रयोग किये गए, इसमें एक प्रयोग में एक ओर बैठे लोगों को लालच देकर दूसरी ओर बैठे लोगों को एक तार और बटन द्वारा बिजली के झटके देने के आदेश दिए गए।

दूसरी ओर बैठे लोगों तक हालाँकि बिजली का करंट नहीं दिया जा रहा था, उन्हें झटके लगने और पीड़ा से चिल्लाने का अभिनय ही करना था।

क्योंकि बिजली का झटका देने वालों ने आदेश देने वाले को अपना बॉस या संरक्षक मान लिया था इसलिए उन्होंने बिजली के वोल्टस बढ़ाने के बाद क्रूरता की सीमा तक जाकर सामने वालों को बिजली के झटके दिए। दूसरी ओर बिजली के झटके खाने वालों की चीखें इधर भी सुनाई देती थीं, मगर इधर वालों ने इन चीखों की चिंता किये बिना आँख मूँद कर आज्ञा का पालन किया था।

बिजली के झटके देने वालों को छूट थी कि वो जब चाहें झटके देना बंद कर सकते हैं, मगर 40 में से 25 ने अत्यधिक तीव्रता के झटके तक देना में संकोच नहीं किया। तब इस प्रयोग से अमरीका ये जानकर हैरान रह गया था कि किसी भी समूह को तैयार कर मनोवैज्ञानिक तौर पर मानसिक गुलाम बनाकर कुछ भी कराया जा सकता है।

स्टेनली मिलग्राम के आज्ञाकारिता के इस मनोवैज्ञानिक प्रयोग पर हॉलीवुड में 2015 में एक फिल्म भी बनी थी जिसका नाम था Experimenter.

ठीक ऐसा ही प्रयोग डॉक्टर एमिली केस्पर भी किया था, ये भी एक Shock Experiment ही था, इसमें हिस्सा लेने वालों को भी सामने बैठे लोगों को बिजली के अलग अलग तीव्रता के झटके देने के आदेश देकर आज्ञाकारिता की मानसिकता का विश्लेषण किया गया था।

डॉक्टर एमिली केस्पर ने प्रयोग में हिस्सा लेने वाले प्रतिभागियों से कहा कि वे अपने साथी को बिजली के झटके दें जिसके बदले उनको कुछ पैसे मिलेंगे। एक-एक प्रतिभागी को 60 बार बिजली के झटके देने का मौका दिया गया। लगभग आधी बार प्रतिभागियों ने ऐसा नहीं किया। 5 से 10 प्रतिशत प्रतिभागियों ने हर बार अपने साथी को झटका देने का आदेश मानने से इंकार कर दिया।

अगली बार कैस्पर वहीं खड़ी हो गईं और उन्होंने प्रतिभागियों से बिजली के झटके देने की क्रिया दोहराने को कहा। इस बार उन प्रतिभागियों ने भी अपने साथियों को झटके लगाने शुरू किए जिन्होंने पहले एक बार भी झटका नहीं लगाया था।

डॉक्टर कैस्पर कहती हैं, “मैंने 450 प्रतिभागियों पर यह परीक्षण किया और अब तक केवल तीन लोगों ने आदेश मानने से इंकार किया।”

ये दोनों मनोवैज्ञानिक प्रयोग इसलिए किये गए थे ताकि उन विशेष कारकों के बारे में अधिक पता लगाया जा सके जो मनोवैज्ञानिक तौर पर आज्ञाकारिता को प्रभावित कर सकते हैं। और उन कारकों पर काम करके बड़े समूह को समय आने पर आज्ञाकारी बनाया जा सके।

 

आज्ञाकारिता एक ऐसा मनोवैज्ञानिक गुण या अवगुण है जो मानवीय समाज में पाया जाता है, कई बार आज्ञा कभी सीधे भी नहीं दी जाती है बल्कि उसे इस तरह से पेश किया जाता है कि लगता है कि इसे पूरा करने में ही आपकी भलाई है या आपका ही कर्तव्य है। आज्ञा मानने पर पुरस्कार या शाबाशी और ना मानने पर नुकसान की आशंका का भय भी दिखाया जाता है।

प्रसिद्द मनोवैज्ञानिक योसेफ ब्रॉडी का कहना है कि आज की उपभोक्तावादी संस्कृति और गलाकाट राजनीति के लिए आज्ञाकारी समूह मुनाफे का सौदा है। इसलिए बाजार और राजनीति ऐसा आज्ञाकारी दिमाग चाहती हैं जो आँख मूँद कर विज्ञापनों और नारों का अनुसरण करे।

आज्ञाकारिता और संस्कारिता किसी भी देश के स्वस्थ समाज का आइना होती है, मगर जब यही आज्ञाकारिता मानसिक दासता की राह चल पड़े तो देश और समाज संक्रमित हो सकता है। सत्ता हमेशा आज्ञाकारिता चाहती है मगर निरंकुशता या मानसिक दासता की सीमा तक पहुँच जाना गंभीर हो सकता है, ऐसे में आज्ञाकारिता सूचकांक तय होना चाहिए, और इसके लिए स्वस्थ मस्तिष्क और मज़बूत सोच ज़रूरी है।

अंध आज्ञाकारियों, मानसिक दासों और भेड़ों के झुण्ड में कोई अंतर नहीं होता।

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